Mann Ke Bhaav offers a vast collection of Hindi Kavitayen. Read Kavita on Nature, sports, motivation, and more. Our हिंदी कविताएं, Poem, and Shayari are available online!
दिसंबर 31, 2021
दिसंबर 27, 2021
पहला प्यार
वो पहला-पहला प्यार,
वो छुप-छुप के दीदार,
वो मन ही मन इकरार,
वो कहने के विचार,
वो सकुचाना हर बार,
फिर आजीवन इंतज़ार ||
दिसंबर 13, 2021
हर-हर महादेव
हर-हर करता हर एक जन पहुँच रहा अब हर के धाम,
हर हैं भोले हर ही भैरव, हर ही हैं करुणा के धाम ||
दिसंबर 05, 2021
विजयपथ
काँटों के बगैर कोई बागान नहीं होता,
जीत का रस्ता कभी आसान नहीं होता ||
नवंबर 09, 2021
हमने एक बीज बोया था
सूखे निर्जल मरुस्थल में,
मृगतृष्णा के भरम में,
सर्वस्व जब खोया था,
हमने एक बीज बोया था |
जब सपना अपना टूटा था,
अनपेक्षित अंकुर फूटा था,
श्रम से उसको संजोया था,
हमने एक बीज बोया था |
आज मरु पर उपवन छाया है,
जो चाहा था वह पाया है,
फलों से नत लहराया है,
हमने जो बीज बोया था ||
नवंबर 04, 2021
शुभ दीपावली
संत कवि श्रीतुलसीदास कृत श्री राम चरित मानस से प्रेरित दीपावली के संदर्भ में मेरी चंद पंक्तियाँ -
भ्रमित भटकता हूँ मैं बालक |
तुम ही हो जगत के पालक ||
नीच कुटिल है मेरी संगत |
माँगू राम नाम की रंगत ||
राम बनो मेरे खेवैया |
भवसागर तर जाए नैया ||
दीपक घृत के दिल में जलाऊं |
हृदय में श्रीहरि को मैं बसाऊं ||
अक्टूबर 31, 2021
सरदार पटेल की जयंती पर श्रद्धासुमन
तिनकों को समेट कर इक धागे में पिरोया था,
टुकड़ों को बटोर कर इक राष्ट्र को संजोया था,
नमन है भारतमाता के उस वीर पुत्र को,
नींव में जिसने एकता का इक बीज बोया था ||
अक्टूबर 28, 2021
प्रकाश का महत्व
ना सतरंगी छटा होती श्याम ही श्याम नज़र आता,
ना जीवन होता धरती पर ना नभ को रवि सजाता,
ना शबनम की बूँदें होतीं ना बादल बारिश बरसाता,
ना जीव-जंतु-कीट होते ना पवन में तरुवर लहराता,
ना कलकल बहती धारा में जीवन कभी पनप पाता,
गर रचनाकर की रचना में प्रकाश स्थान नहीं पाता ||
अक्टूबर 19, 2021
मंज़िल की राहें
जो मार्ग मैंने अपनाया,
जिन काँटों पर मैं चल आया,
यदि उस रस्ते ना जाकर,
पृथक पथ को मैं अपनाता,
बाधाओं से दूरी रखकर,
फूलों पर पग भरता जाता,
क्या उन राहों पर चलकर मैं,
गंतव्य तक पहुँच पाता?
अक्टूबर 15, 2021
मेरे राम, मेरे राम
अंत समय में रावण ने श्रीराम से कहा -
मेरे राम, मेरे राम
तू स्वामी मैं जंतु आम,
मेरे राम, मेरे राम
तू ज्ञानी मैं मूरख अनजान,
मेरे राम, मेरे राम
याचक को दे क्षमादान,
मेरे राम, मेरे राम
ले चल अब तेरे धाम,
मेरे राम, मेरे राम ||
अक्टूबर 02, 2021
गाँधीजी एवं शास्त्रीजी की स्मृति में श्रद्धासुमन
ओ मेरे मोहन के दास,
सम्पूर्ण भारत की आस,
करता हूँ तुझसे अरदास,
फ़िर से आजा अब तू पास,
सिखला दे पुन: इक बार,
सत्य और अहिंसा है खास,
थाम के लकड़ी का वह बाँस,
जगा फ़िर जग में विश्वास |
ओ मेरे भारत के लाल,
तू तो था बहादुर कमाल,
नित्य तैरा सरिता विशाल,
शिक्षा में निष्ठा की मिसाल,
सिखला दे पुन: इक बार,
कृषक और सैनिक हैं ढाल,
तन पर सादी खादी डाल,
फ़िर कर राष्ट्र का ऊँचा भाल ||
सितंबर 25, 2021
वो सुबह कभी तो आएगी
जब पैरों में बेड़ी नहीं,
कंधों पर खुलते पर होंगे,
जब किस्मत में पिंजरा नहीं,
खुला नीला गगन होगा,
जब बंदिश का बंधन नहीं,
अविरल धारा सा मन होगा,
जब जागते नयनों में भी,
सच होता हर स्वपन होगा ||
सितंबर 14, 2021
हिंदी दिवस पर विशेष
संस्कृत की संतान है हिंदी,
संस्कृत सी महान है हिंदी,
भारत की पहचान है हिंदी,
भारत का अभिमान है हिंदी,
भूत का बखान है हिंदी,
भविष्य की उड़ान है हिंदी,
बूढ़ी नहीं जवान है हिंदी,
पीढ़ी का रुझान है हिंदी,
पुरखों का वरदान है हिंदी,
मेरा दिल मेरी जान है हिंदी ||
सितंबर 12, 2021
काश! तितली बन जाऊँ !
नन्हे-नन्हे पर हों मेरे,
फूलों पर मैं मंडराऊँ,
रंगों का पर्याय बनूँ मैं,
कीट कभी ना कहलाऊँ,
सोचा करता हूँ अक्सर मैं,
काश! तितली बन जाऊँ !
जनम भले ही जैसा भी हो,
गाथा अपनी खुद लिख पाऊँ,
पिंजरे को तोड़ मैं इक दिन,
पंख फैला कर उड़ जाऊँ,
सोचा करता हूँ अक्सर मैं,
काश! तितली बन जाऊँ !
अंधड़ में बहकर भी मैं बस,
सुंदरता ही फैलाऊँ,
दो क्षण ही अस्तित्व अगर हो,
जीवनभर बस मुस्काऊँ,
सोचा करता हूँ अक्सर मैं,
काश! तितली बन जाऊँ !!
सितंबर 05, 2021
पैरालंपिक्स के वीर
भारतीय पैरालंपिक वीरों को अभूतपूर्व प्रदर्शन पर ढेरों बधाई एवं शुभकामनाएं |
एक-आध तमगे नहीं, जीते पदक आदतन,
अविश्वसनीय अकल्पनीय अद्वितीय आरोहण ||
अगस्त 30, 2021
हे कृष्ण !
युद्धभूमि में शोकाकुल अपने पार्थ को तूने ज्ञान दिया,
विष से व्याकुल जमुना को तूने ही तो विष से पार किया,
दो मुठ्ठी चावल से अपने सखा का भी उद्धार किया,
छोटी सी उंगली पर तूने पर्वत को जैसे थाम लिया,
मेरे जीवन की कश्ती को ऊँची लहरों में थाम ले,
बनजा मेरा खेवैया, अपने चरणों में मुझको स्थान दे ||
अगस्त 22, 2021
बदलाव की आहट
हवाओं का रुख कुछ बदला-बदला सा है,
अमावस का चाँद भी उजला-उजला सा है,
संगमरमर की चट्टानों ने भी आज भरी है साँस,
दुनिया बनाने वाले का मिज़ाज कुछ बदला-बदला सा है ||
अगस्त 14, 2021
मेरे अश्क
मैं बरखा में निकलता हूँ, मन का सुकून पाने को,
अपने अश्कों को बारिश की, बूँदों में छिपाने को ||
अगस्त 08, 2021
मिल्खा सिंह को सच्ची श्रद्धांजलि
मिल्खा सिंह जी को कल गए हुए पूरे पचास दिन हो गए | नीरज चोपड़ा ने कल उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि दी, उनका स्वप्न पूरा करके | नीरज की उपलब्धि एवं मिल्खा जी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कुछ पंक्तियाँ -
कमल (नीरज) खिला है आज ओलिंपिक के मैदान में,
मिल्खा झूम रहे होंगे उस पार उस जहान में ||
काश मिल्खा कुछ दिन और जी लेते,
जीते जी अपने सपने को जी लेते ||
अगस्त 05, 2021
हॉकी में पदक पर बधाई
बहुत दिनों बाद ऐसी सुबह आई है,
ना रंज है, ना गम है, ना रुसवाई है,
जीत की कहानी हमने दोहराई है,
कांस्य पदक पर पूरे राष्ट्र को बधाई है ||
जुलाई 29, 2021
मैरी कॉम
हार-जीत में क्या रखा जीवन के अंग हैं,
प्रेरक तेरा जीवन है, तेरे हर रंग हैं ||
ओलिंपिक पदक विजेता एम. सी. मैरी कॉम को समर्पित |
जीवनयात्रा
पथ पर पग भरते-भरते,
यात्रा संग करते-करते,
आता है औचक एक मोड़,
देता है जत्थे को तोड़,
बंट जाती हैं राहें सबकी,
बढ़ते हमराही को छोड़,
गम की गठरी को ना ले चल,
सुख के पल यादों में जोड़,
गाथा नूतन तू लिखता चल,
हर इक रस्ते हर इक मोड़ ||
जुलाई 24, 2021
सोने का तमगा आएगा
उगते सूरज की धरती पर तिरंगा लहराएगा,
राष्ट्रगान गूँजेगा, सोने का तमगा आएगा ||
जुलाई 20, 2021
पिंजरे का पंछी
मैं बरखा की बूँदों सा बादलों में रहता हूँ,
पवन के झोकों में मैं मेघों की भांति बहता हूँ,
डैनों को अपने फैलाए नभ पर मैं विचरता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ |
मैं जब जी चाहे सोता हूँ जब जी चाहे उठता हूँ,
घोंसले को संयम से तिनका-तिनका संजोता हूँ,
धन की ख़ातिर ना सुन्दर लम्हों की ख़ातिर जीता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ |
पैरों में मेरे बेड़ी है पंखों पर कतरन के निशान,
जीवन में मेरे बाकी बस – बंदिश लाचारी और
अपमान,
पिंजरे में कैद बेबस मैं सपना एकल बुनता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ ||
जुलाई 17, 2021
लालबत्ती
अपनी मोटर के कोमल गद्देदार सिंहासन पर,
शीतल वायु के झोकों में अहम से विराजकर,
खिड़की के बाहर तपती-चुभती धूप में झाँककर,
मैंने एक नन्हे से बालक को अपनी ओर आते देखा |
पैरों में टूटी चप्पल थी तन पर चिथड़ों के अवशेष,
मस्तक पर असंख्य बूँदें थीं लब पर दरारों के संकेत,
उसके हाथों में एक मोटे-लंबे से बाँस पर,
मैंने सतरंगी गुब्बारों को पवन में लहराते देखा |
मेरी मोटर की खिड़की से अंदर को झाँककर,
मेरी संतति की आँखों में लोभ को भाँपकर,
आशा से मेरी खिड़की पर ऊँगली से मारकर,
उसके अधरों की दरारों को मैंने गहराते देखा |
कष्टों से दूर अपनी माता के दामन को थामकर,
अपने बाबा के हाथों से एक फुग्गे को छीनकर,
जीवन को गुड्डे-गुड़ियों का खेल भर मानकर,
अपने बच्चे के चेहरे पर खुशियों को मंडराते देखा |
चंद सिक्कों को अपनी छोटी सी झोली में बाँधकर,
खुद खेलने की उम्र में पूरे कुनबे को पालकर,
दरिद्रता के अभिशाप से बचपन को ना जानकर,
अपने बीते कल को अगली मोटर तक जाते देखा ||
जुलाई 12, 2021
सत्य क्या है?
सुख की अनुभूति,
या दुःख का अनुभव,
अंधियारी रात,
या मधुरम कलरव,
सपनों की दुनिया,
या व्याकुल वास्तव,
जीवंत शरीर,
या निर्जीव शव ||
जुलाई 04, 2021
फूल चले जाते हैं, काँटे सदा सताते हैं
छरहरी सी इक डाली पर घरौंदा अपना बसाते हैं,
कंटक के घेरे में भी, गुल खिलखिलाते हैं,
अपने रंगों की आभा से, उपवन को सजाते हैं,
मुरझाए मुखड़े पर भी, मुस्कान फ़ेर जाते हैं,
पर खुशियों के ये क्षण, दो पल को ही आते हैं,
फूल चले जाते हैं, काँटे सदा सताते हैं ||
जून 29, 2021
बचपन
वो बेफिक्री, वो मस्ती और वो नादानी,
वो शेरों की चिड़ियों-परियों की कहानी,
वो सड़कों पर कल-कल बहता बरखा का पानी,
उसमें तैराने को कागज़ की कश्ती बनानी,
वो चुपके से पैसे देती दादी-नानी,
वो आँचल की गहरी निद्रा सुहानी,
वो यारों संग धूप में साईकिल दौड़ानी,
वो बागों में मटरगश्ती और शैतानी,
वो दौर था जब खुशियों की सीमाएं थीं अनजानी,
वो दौर था जब हमने जग की सच्चाईयाँ थीं ना जानी,
ये कैसा एकांत लेकर आई है जवानी,
इससे तो बेहतर थी बचपन की नादानी ||
जून 25, 2021
बुझने से पहले ज्वाला भड़के
सूरज की अलौकिक राहों में,
अंतिम डग से थोड़ा पहले,
जब पग-पग बढ़ता राही भी,
तरु छाया में थोड़ा ठहरे,
ऊष्मा की चुभन सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
दीपक के लघुतम जीवन में,
अंधियारे से थोड़ा पहले,
जब अंतिम चंद बूँदों से,
बाती के रेशे होते सुनहरे,
ज्योति की जगमग सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
ऋतुओं के निरंतर फेरे में,
बसंती बयारों के पहले,
कोहरे के घने कंबल में,
जब दिन में भी दिनकर ना दीखे,
शिशिर की शीतलता सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
किसी मृदु-मनोहारी मंचन में,
पटाक्षेप से थोड़ा पहले,
जब उन्मुक्त निमग्न रंगकर्मी,
रहस्य की परतों को खोले,
दर्शक का रोमांच सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
गंतव्यपथ पर चलते-चलते,
शिखर छूने से थोड़ा पहले,
ध्येय को तलाशती राहों पर,
जब दृढ़-संकल्प भी डोले,
राह की जटिलता सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
जीवन की अनूठी यात्रा के,
समापन से थोड़ा पहले,
जब तन से रूह का बंधन भी,
झीनी सी डोरी से ही झूले,
जीने की चाह सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के ||
जून 18, 2021
मुझको मंज़ूर नहीं
धन के बल पर ग्रह का दोहन,
और अतिरेक मानवों का शोषण,
जन से जन का यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं |
बढ़ना जीवनपथ पर तनहा,
परस्पर बैरी, कटुता, घृणा,
मन से मन का यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं |
इकतरफ़ा चाहत की सनक,
अप्राप्य को पाने की तड़प,
सच से मन का यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं |
कट्टरता का विषपूर्ण भुजंग,
अपने ही मत में मदहोश मलंग,
बुद्धि से नर का यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं |
स्त्री की इच्छाओं का दमन,
पुरुष का नाजायज़ अहम,
नर से नारी का यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं |
अलग ही दुनिया में जीना,
संग होकर संग में ना होना,
तुम से मेरा यह विभाजन,
मुझको मंज़ूर नहीं ||
जून 13, 2021
अधूरा प्यार
लब पर तेरे मेरा नाम नहीं आता है,
जो मैं पुकारूँ फिर भी तेरा पैगाम नहीं आता है,
जग के समक्ष मुझको तू जब-जब बदनाम करती है,
जानता हूँ दिल-ही-दिल में आह भरती है,
दस्तूर दुनिया का बदल सकते नहीं हैं हम,
इक-दूजे संग चाहकर भी जी सकते नहीं हैं हम ||
जून 07, 2021
अल्पविराम,
वक्त के पहियों से भी गतिमान थी ज़िंदगी,
वक्त की भांति ही सतत चलायमान थी ज़िंदगी,
वक्त के पहिये ने रुख ऐसा अपना मोड़ लिया,
रैन के उपरांत सूरज ने निकलना छोड़ दिया,
कष्टों के सैलाब में इंसान मानो बह गया,
जो जहाँ था वो वहीँ पर बस, रह गया,
आस है तम को भेदती फिर घाम हो,
पूर्ण नहीं ये जीवन का बस एक अल्पविराम हो ||
जून 02, 2021
क्षणभंगुर प्रत्येक तमाशा है
जब नभ पर बहता बादल भी,
बरखा बनकर ढह जाता है,
जब दिनभर जलता दिनकर भी,
संध्या होते ढल जाता है,
जब विध्वंसक सैलाब भी,
साहिल तक फिर थम जाता है,
जब दीनहीन कोई रंक भी,
श्रम से राजा बन जाता है,
जब निर्बल नश्वर हर इक जीव,
कालान्तर में मर जाता है |
तो चहुँ ओर तम को पाकर,
तू व्यर्थ क्यों घबराता है ?
और सुख-समृद्धि से तर हो,
दंभी कैसे बन जाता है?
अपने प्रियजन को खोकर,
शोकाकुल क्यों हो जाता है?
सतत अटूट सत्य परिवर्तन,
स्थिरता सिर्फ़ छलावा है,
चिरकालीन यहाँ कुछ भी नहीं,
क्षणभंगुर प्रत्येक तमाशा है ||
मई 27, 2021
कतार
फल-सब्ज़ी और राशन की खातिर मारा-मार है,
सब व्यवसाय ठप, केवल इनमें ही व्यापार है,
प्राणों को वायु नहीं, प्राणवायु की दरकार है,
सिलेण्डर अब अलग है, पर लगती वही कतार है,
अस्पतालों पर पीड़ित रुग्णों का प्रचंड भार है,
दवा तो मिलती नहीं, दारू की भरमार है,
ज़िंदों की तो छोड़ो, मुर्दों में भी तकरार है,
श्मशानों में भी लगती, लंबी-लंबी कतार है ||
मई 23, 2021
ए माया ! तू क्या करती है ?
ए माया ! तू क्या करती है ?
सुख के लम्हों को हरती है,
पुलकित मन में गम भरती है,
माथे की लाली हरती है,
भरी कोख सूनी करती है,
पालक का साया हरती है,
जीते-जी मुर्दा करती है,
अल्पायु में प्राण हरती है,
ए माया ! तू क्या करती है ?
मई 17, 2021
बहते-बहते एकाएक वक़्त कितना बदल जाता है
सुसज्जित जिन बाजारों में,
गलियों में और चौबारों में,
बहती थी जीवन की धारा,
रहता अस्पष्ट सा एक शोर,
बसता था मानव का मेला,
क्रय-विक्रय की बेजोड़ होड़ |
वहाँ पसरा अब सन्नाटा है,
दहशत से कोई ना आता है,
अपने ही घर में हर कोई,
खुद को बंदी अब पाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
वीरान उन मैदानों में,
कब्रिस्तानों में श्मशानों में,
एकाध ही दिन में आता था,
संग अपने समूह लाता था,
विस्तृत विभिन्न रीतियों से,
माटी में वह मिल जाता था |
वहाँ मृतकों का अब तांता है,
संबंधी संग ना आता है,
अंतिम क्षणों में भी देह,
समुचित सम्मान ना पाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
शहर के उन बागानों में,
युगलों की पनाहगाहों में,
जहाँ चलते थे बल्ला और गेंद,
सजती थी यारों की महफ़िल,
खिलते थे विविधाकर्षक फ़ूल ,
जो थे सप्ताहांत की मंज़िल |
वहाँ सजती अब चिताएँ हैं,
मरघट बनी वाटिकाएँ हैं,
अस्थि के फूलों को चुनकर,
कलशों में समेटा जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
आधुनिक दवाखानों में,
खूब चलती उन दुकानों में,
रोगों के भिन्न प्रकार थे,
उतने ही अलग उपचार थे,
आशा से रोगी जाता था,
अक्सर ठीक होकर आता था |
वहाँ बस अब एक ही रोग है,
जिसका ना कोई तोड़ है,
उखड़ती साँसों से बोझिल,
स्थापित तंत्र लड़खड़ाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
कोलाहली कारखानों में,
व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में,
दूरस्थ स्थानों के बाशिंदे,
करते थे श्रम दिन और रात,
रहता था मस्तक पर पसीना,
मन में सुखमय जीवन की आस |
वहाँ उड़ती अब धूल है,
मरना किसको कबूल है,
नगरों से वापस अपने गाँव,
पैदल ही जत्था जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
टूटी-फूटी उन सड़कों पर,
गुफा समतुल्य गड्ढों पर,
चलते थे वाहन कई प्रकार,
रहती थी दिनभर भीड़-भाड़,
इक-दूजे से आगे होने में,
होती थी अक्सर तकरार |
वो सड़कें सारी कोरी हैं,
ना वाहन है ना बटोही है,
अब अक्सर उन मार्गों पर,
रसायन छिड़का जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
विद्या के उन संस्थानों में,
शिक्षण प्रतिष्ठानों में,
जहाँ हरदम चहकते चेहरे थे,
दोस्ती के रिश्ते गहरे थे,
शिक्षा का प्रसाद मिलता था,
कलियों से फूल खिलता था |
वहाँ लटका अब ताला है,
ना कोई पढ़नेवाला है,
ज्ञान के अनुयायियों का,
दूभर-दुष्कर हर रास्ता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
छोटे-बड़े परिवारों में,
घरों में, त्योहारों में,
लोगों का आना-जाना था,
मिलने का सदा बहाना था,
सुख-दुःख के सब साथी थे,
हर मोड़ पर साथ निभाते थे |
अब सब घरों में बंद हैं,
ना मिलते हैं, ना संग हैं,
घर ही दफ़्तर कहलाता है,
कोई कहीं ना जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है ||
मई 09, 2021
ऐसी मेरी जननी थी
मुझको भरपेट खिलाकर,
वो खुद भूखी रह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी तकलीफ़ मिटाकर,
खुद दर्द वो सह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
अपनी ख्वाहिश दबाकर,
ज़िद मेरी पूरी करती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी मासूम भूलों को,
वो अपने सर मढ़ लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
गर कीटों से मैं डर जाऊं,
झाड़ू उनपर धर देती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी हल्के से ज्वर पर भी,
सारी रात जग लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
रुग्णावस्था में बेदम भी,
मुझको गोदी भर लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
अपने आँचल के कोने से,
मेरे सब गम हर लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी बदतमीज़ी पर वो,
भर-भर कर मुझको धोती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
गर पढ़ते-पढ़ते सुस्ताऊं,
वो दो कस के धर देती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मुझको थप्पड़ मारकर,
खुद चुपके से रो लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
बाहर के लोगों से मेरी,
गलती पर भी लड़ लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरे खोए सामान को,
वो चुटकी में ला कर देती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
आने वाले कल की ख़ातिर,
दूरी मुझसे सह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
तू जमकर बस पढ़ाई कर,
चिठ्ठी उसकी यह कहती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
छुट्टी में घर जाने पर वो,
मेरी खिदमत में रहती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी बातों के फेर में,
वो बस यूँ ही बह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी शादी से भी पहले,
कपड़े नन्हे बुन लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मृत्युशय्या पर होकर भी,
मुझको हँसने को कहती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
उसके जाने के बाद भी,
उसकी ज़रूरत रहती है,
ऐसी मेरी जननी थी ||
मई 06, 2021
क्या पाया, तूने मानव ?
दो पैरों पर सीधा चलके,
वस्त्रों को धारण करके,
कंदराओं से निकलके,
क्या पाया, तूने मानव ?
सरिता में विष मिलाकर,
तरुवर की छाँव मिटाकर,
नगरों में खुद को बसाकर,
क्या पाया, तूने मानव ?
निर्बल पर बल चलाकर,
रुधिर को व्यर्थ बहाकर,
दौलत को खूब जुटाकर ,
क्या पाया, तूने मानव ?
परमार्थ को भुलाकर,
कुकर्मों को अपनाकर,
दमन के पथ पर जाकर,
क्या पाया, तूने मानव ?
मई 01, 2021
गंतव्यपथ
बढ़ते-बढ़ते जब खुद को तुम,
भटका हुआ पाओगे,
अंधियारे में मंज़िल की,
राहों से खो जाओगे,
हालातों से हारकर जब तुम,
बस रुकना चाहोगे |
हिम्मत को अपनी बाँध बस तुम,
आगे बढ़ते जाना,
लक्ष्य की सिद्धी से पहले,
खुद-ब-खुद मत रुक जाना,
क्या मालूम दो पग आगे ही,
लिखा हो मंज़िल पाना ||
अप्रैल 22, 2021
पृथ्वी दिवस
सृष्टि के सुंदर स्वरूप को संकटग्रस्त तू ना कर,
सृष्टि से ही तू है मानव, सृष्टि की रक्षा कर ||
अप्रैल 20, 2021
हारेंगे नहीं हम
मन में संकल्प ठान कर,
काटों को रस्ता मान कर,
बढ़ते जायेंगे हम,
हारेंगे नहीं हम |
इक पग को पीछे रखकर,
दो पग आगे सरककर,
भागेंगे तेज़ हम,
हारेंगे नहीं हम |
हमराही से बिछड़कर,
अपनों से चाहे लड़कर,
भले अकेले हम,
हारेंगे नहीं हम |
सच का हाथ पकड़कर,
दुश्मन के हाथों मरकर,
फिर-फिर जीयेंगे हम,
हारेंगे नहीं हम |
रस्ते में थोड़ा थककर,
ठोकर खाकर और गिरकर,
फिरसे उठेंगे हम,
हारेंगे नहीं हम |
मंज़िल को अपना बनाकर,
राह के काँटों को मिटाकर,
इक दिन जीतेंगे हम,
तब तक,
हारेंगे नहीं हम ||
अप्रैल 15, 2021
ये इमारत !
नवयौवन के आँगन में,
सौंदर्य के परचम पर,
अनुपम रंगो को कर धारण,
अभिमान का बन उदाहरण,
अपने ही आकर्षण से अभिभूत,
कैसे गौरवान्वित हो रही है ये इमारत !
अपराह्न की बेला में,
गफलत के सबब से,
रूप-रंग थोड़ा है बाकी,
गुज़रे लम्हों का है साक्षी,
बनकर अपनी बस एक झाँकी,
कैसे जीर्ण-क्षीण हो रही है ये इमारत !
कभी कौतूहल का कारण बनी,
खिदमतगारों से रही पटी,
आज खंडहर हो चली है,
सूखे पत्तों की डली है,
माटी में मिलने को आतुर,
कैसे छिन्न-भिन्न हो रही है ये इमारत !
अप्रैल 02, 2021
भगवान ! कहाँ है तू?
जब निहत्थे निरपराधों को सूली पे चढ़ाया जाता है,
जब सरहद पर जवानों का रुधिर बहाया जाता है,
जब धन की ख़ातिर अपने ही बंगले को जलाया जाता है,
जब तन की ख़ातिर औरत को नज़रों में गिराया जाता है,
जब नन्हे-नन्हे बच्चों को भूखे ही सुलाया जाता है,
जब पत्थर की तेरी मूरत पर कंचन को लुटाया जाता है,
जब सच के राही को हरदम बेहद सताया जाता है,
जब गौ के पावन दूध में पानी को मिलाया जाता है,
जब तेरे नाम पर अक्सर पाखण्ड फैलाया जाता है,
जब तेरे नाम पर हिंदू-मुस्लिम को लड़ाया जाता है,
तब-तब मेरे दिल में बस एक ख्याल आता है,
तू सच में है भी या बस किस्सों में ही बताया जाता है ||
मार्च 29, 2021
होली
जीवन में सबके घुल जाएँ खुशियों के हज़ारों रंग,
घृणा रोग सब मिट जाएँ, छाए चहुँ ओर उल्लास उमंग |
मार्च 21, 2021
नुक्कड़
गली के नुक्कड़ पर रोज़,
उनके रूबरू आता हूँ |
फासले इतने हैं मगर ,
कुछ भी कह ना पाता हूँ ||
मार्च 14, 2021
मैं हँसना भूल गया
जब बचपन के मेरे बंधु ने,
चिर विश्वास के तंतु ने,
पीछे से खंजर मार कर,
मेरा भरोसा तोड़ दिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब मेरे दफ़्तर में ऊँचे,
पद पर आसीन साहब ने,
मेरे श्रम को अनदेखा कर,
चमचों से नाता जोड़ लिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब जन्मों के मेरे साथी ने,
सुख और दुःख के हमराही ने,
दुःख के लम्हों को आता देख,
साथ निभाना छोड़ दिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब वर्षों तक सींचे पौधे ने,
उस मेरे अपने बालक ने,
छोटी-छोटी सी बातों पर,
मेरा भर-भर अपमान किया,
मैं हँसना भूल गया |
जिसकी गोदी में रहता था,
जब उस प्यारे से चेहरे ने,
मेरी लाई साड़ी को छोड़,
श्वेत कफ़न ओढ़ लिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब मंज़िल की ओर अग्रसर,
पहले से मुश्किल राहों को,
नियति की कुटिल चाल ने,
हर-हर बार मरोड़ दिया,
मैं हँसना भूल गया |
मार्च 11, 2021
क्या देखूँ मैं ?
रिमझिम बरखा के मौसम में,
घोर-घने-गहरे कानन में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
रंगों की कान्ति से उज्जवल,
सरिता की धारा सा अविरल,
डैनों के नर्तन, की संगी
दो भद्दी फूहड़ टहनियाँ !
लहराते पंखों की शोभा,
या बेढब पैरों की डगमग,
क्या देखूँ मैं ?
माटी के विराट गोले पर,
माया की अद्भुत क्रीड़ा में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
बहती बयार की भांति
जीवनधारा, के हमराही
सुख के लम्हों, का साथी
किंचित कष्टों का रेला है !
हर्षित मानव का चेहरा,
या पीड़ित पुरुष अकेला,
क्या देखूँ मैं ?
पल दो पल की इन राहों में,
वैद्यों के विकसित आलय में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इत गुंजित होती किलकारी,
अंचल में नटखट अवतारी,
उत शोकाकुल क्रन्दनकारी,
बिछोह के गम से मन भारी !
उत्पत्ति का उन्मुक्त उत्सव,
या विलुप्ति का व्याकुल वास्तव,
क्या देखूँ मैं ?
जनमानस के इस जमघट में,
द्वैत के इस द्वंद्व में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इस ओर करुणा का सागर,
दीनों के कष्टों के तारक,
उस ओर पापों की गागर,
स्वर्णिम मृग रुपी अपकारक !
उपकारी सत के साधक,
या जग में तम के वाहक,
क्या देखूँ मैं ?
मेरे अंत:करण के भीतर,
चित्त की गहराइयों के अंदर,
मन के नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इक सुगंधित मनोहर फुलवारी,
कंटक से डाली है भारी,
काँटों से विचलित ना होकर,
गुल पर जाऊं मैं बलिहारी !
पवन के झोकों में रहकर,
भी निर्भीक जलते दीपक,
को देखूँ मैं !
मार्च 08, 2021
आज की नारी
घर को सिर-माथे पर रखूँ,
ढोऊँ सारी ज़िम्मेदारी,
दफ़्तर भी अपने मैं जाऊँ,
बनकर मैं सबला नारी |
अपने माँ-बाबा को मैं हूँ,
जग में सबसे ज़्यादा प्यारी,
कष्टों को उनके हरने की,
करती हूँ पूरी तैयारी |
सुख-दुःख के अपने साथी पर,
दिल से जाऊँ मैं बलिहारी,
कंधे से कंधा मिलाकर,
चलती हमरी जीवनगाड़ी |
ओछी नज़रों से ना भागूँ,
चाहे बोले दुनिया सारी,
बन काली उसको संहारूँ,
वहशी विकृत व्यभिचारी |
अपनी मर्ज़ी से मैं जीऊँ,
सुख भोगूँ सारे संसारी,
मुझपर जो लगाम लगाए,
पड़ेगा, उसे बड़ा भारी |
देवी का सा रूप है मेरा,
हूँ ना मैं अबला बेचारी,
अपने दम पर शिखर को चूमूँ,
मैं हूँ, आज की नारी ||
मार्च 06, 2021
किस्मत
किस्मत की लकीरों में बंधकर,
खुद को तू ना तड़पा,
जो होना है वो तो होएगा,
जो कर सकता है करके दिखा |
फ़रवरी 18, 2021
टूटा दिल
गलती मेरी थी जो मैंने तुझसे कुछ उम्मीद की,
उसको पूरा करने की तुझसे मैंने ताकीद की ||
फ़रवरी 14, 2021
शुभ वैलेंटाइन्स दिवस
मैं नदी हूँ, तू सागर है |
मैं प्यासा हूँ, तू सावन है |
मैं भँवरा हूँ, तू उपवन है |
मैं विषधर हूँ, तू चन्दन है |
मैं पतंग हूँ, तू पवन है |
मैं फिज़ा हूँ, तू गगन है |
मैं सुबह हूँ, तू दिनकर है |
मैं निशा हूँ, तू पूनम है |
मैं रुग्ण हूँ, तू औषध है |
मैं बेघर हूँ, तू भवन है |
मैं शिशु हूँ, तू दामन है |
मैं देह हूँ, तू श्वसन है |
मैं भक्त हूँ, तू भगवन है |
मैं हृदय हूँ, तू धड़कन है ||
फ़रवरी 13, 2021
पप्पू, तेरे बस की कहाँ !!
ना मैं भक्त हूँ, ना ही आंदोलनजीवी, ना ही किसी और गुट का सदस्य । मेरी मंशा किसी की भावनाओं को ठेस पहुँचाने की नहीं है । बस कुनबापरस्ती पर एक व्यंग है । पढ़ें और आनन्द लें । ज़्यादा ना सोचें ।
अचकन पर गुलाब सजाना,
बच्चों का चाचा कहलाना,
सहयोगियों संग मिलजुल कर,
तिनकों से इक राष्ट्र बनाना,
पप्पू, तेरे बस की कहाँ !!
वैरी को धूल चटाना,
दुर्गा सदृश कहलाना,
अभूतपूर्व पराजय से उबरकर,
फिर एक बार सरकार बनाना,
पप्पू, तेरे बस की कहाँ !!
युवावस्था में पद संभालना,
उत्तरदायित्व से ना सकुचाना,
बाघों से सीधे टकराना,
डिज़िटाइज़ेशन की नींव रख जाना,
पप्पू, तेरे बस की कहाँ !!
मन की आवाज़ सुन पाना,
सर्वोच्च पद को ठुकराना,
तूफानी समंदर की लहरों में,
डूबती कश्ती को चलाना,
पप्पू, तेरे बस की कहाँ !!
कड़े-कठोर निर्णय ले पाना,
पर-सिद्धि को अपना बताना,
शत्रु की मांद में घुसकर,
शत्रु का संहार कराना,
पप्पू, तेरे बस की कहाँ !!
जनमानस का नेता बन जाना,
भविष्य का विकल्प कहलाना,
लिखा हुआ भाषण दोहराना,
अरे आलू से सोना बनाना,
पप्पू, तेरे बस की कहाँ !!
फ़रवरी 04, 2021
कोरोना वैक्सीन
क्षितिज पर छाई है लाली,
लाई सुबह का संदेसा,
घर से बाहर फिर निकलेंगे,
खाने चाट और समौसा,
तब तक लेकिन रखना होगा,
परस्पर दूरी पर ही भरोसा ||
फ़रवरी 03, 2021
कोरोना के अनुभव
चंद हफ़्तों पहले मेरा सामना कोरोना से हुआ | अपने अनुभव को शब्दों में ढालने का एक प्रयत्न किया है |
अपने घर का सुदूर कोना,
नीरस मटमैला बिछौना,
विचरण की आज़ादी खोना,
अपने बर्तन खुद ही धोना,
गली-मौहल्ले में कुख्यात होना,
कि आप लाए हो कोरोना |
परस्पर दूरी का परिहास,
खुले मुँह लेते थे जो श्वास,
करते हैं अब यह विश्वास,
बसता रोग इन्हीं के पास,
रखना दूरी इनसे खास,
बाकी सब सावधानियाँ बकवास |
तन के कष्टों से ज़्यादा,
मन की पीड़ा थी चुभती,
अपनी सेहत से ज़्यादा,
अपनों की व्यथा थी दीखती,
रोगी सा एहसास ना होता,
बंधक सी अनुभूति रहती |
जीवन के सागर की ऊँची,
लहरों को मैंने पार किया,
लेकिन मेरे जैसे जाने,
कितनों को इसने मार दिया,
शोषण से त्रस्त होकर शायद,
कुदरत ने ऐसा वार किया ||
जनवरी 22, 2021
मन के भाव
इस कोरे-कोरे पन्ने पर,
शब्दों के काले धब्बों से,
मन के भावों को अर्पित कर,
रंगों का बाग बसाता हूँ |
इस कोरे-कोरे जीवन में,
हताशा के गहरे तिमिर में,
विश्वास के क़दम बढ़ा,
आशा का दीप जलाता हूँ ||
जनवरी 04, 2021
नववर्ष की शुभकामनाएँ
कष्टों की काली रात में,
गुज़रा यह पूरा साल था,
कष्टों से मुक्ति की सुबह,
आशा है 21 संग लाए ||
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