मार्च 11, 2021

क्या देखूँ मैं ?

हिंदी कविता Hindi Kavita क्या देखूँ मैं Kya dekhun main

रिमझिम बरखा के मौसम में,


घोर-घने-गहरे कानन में,


मेरे नैनों के दर्पण में,


छवि अनोखी गोचर होती –


रंगों की कान्ति से उज्जवल,


सरिता की धारा सा अविरल,


डैनों के नर्तन, की संगी


दो भद्दी फूहड़ टहनियाँ !


लहराते पंखों की शोभा,


या बेढब पैरों की डगमग,


क्या देखूँ मैं ?



माटी के विराट गोले पर,


माया की अद्भुत क्रीड़ा में,


मेरे नैनों के दर्पण में,


छवि अनोखी गोचर होती –


बहती बयार की भांति


जीवनधारा, के हमराही


सुख के लम्हों, का साथी


किंचित कष्टों का रेला है !


हर्षित मानव का चेहरा,


या पीड़ित पुरुष अकेला,


क्या देखूँ मैं ?



पल दो पल की इन राहों में,


वैद्यों के विकसित आलय में,


मेरे नैनों के दर्पण में,


छवि अनोखी गोचर होती –


इत गुंजित होती किलकारी,


अंचल में नटखट अवतारी,


उत शोकाकुल क्रन्दनकारी,


बिछोह के गम से मन भारी !


उत्पत्ति का उन्मुक्त उत्सव,


या विलुप्ति का व्याकुल वास्तव,


क्या देखूँ मैं ?



जनमानस के इस जमघट में,


द्वैत के इस द्वंद्व में,


मेरे नैनों के दर्पण में,


छवि अनोखी गोचर होती –


इस ओर करुणा का सागर,


दीनों के कष्टों के तारक,


उस ओर पापों की गागर,


स्वर्णिम मृग रुपी अपकारक !


उपकारी सत के साधक,


या जग में तम के वाहक,


क्या देखूँ मैं ?



मेरे अंत:करण के भीतर,


चित्त की गहराइयों के अंदर,


मन के नैनों के दर्पण में,


छवि अनोखी गोचर होती –


इक सुगंधित मनोहर फुलवारी,


कंटक से डाली है भारी,


काँटों से विचलित ना होकर,


गुल पर जाऊं मैं बलिहारी !


पवन के झोकों में रहकर,


भी निर्भीक जलते दीपक,


को देखूँ मैं !

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