Mann Ke Bhaav offers a vast collection of Hindi Kavitayen. Read Kavita on Nature, sports, motivation, and more. Our हिंदी कविताएं, Poem, and Shayari are available online!
कल्पना की उड़ान लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कल्पना की उड़ान लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
जुलाई 22, 2023
खुशियों के छींटे
बेफ़िक्र बढ़ता जाता हूँ |||
जुलाई 04, 2023
बहुत दिनों बाद
बहुत दिनों बाद ऐसी सुबह आई है,
ना रंज है, ना गम है, ना रुसवाई है,
काली लंबी अंधेरी रात हमने बिताई है,
आशा की तपन ने हर पीड़ा मिटाई है ||
मई 07, 2023
प्रेरक अल्फाज़
हमने हवाओं में बहना नहीं, हवाओं सा बहना सीखा है,
हमने तकदीरों से लड़ना नहीं, तकदीरें बदलना सीखा है ||
मार्च 31, 2023
उपवन
रोज़ की घुड़दौड़ से, थोड़ा समय बचाकर,
व्यर्थ की आपाधापी से, नज़रें ज़रा चुराकर,
इक दिन फुर्सत पाकर मैं, इक उपवन को चला |
मंद शीतल वायु थी वहाँ खुशबू से भरी,
क्यारियों में सज रही थीं फ़ूलों की लड़ी,
कदम-कदम पर सूखे पत्ते चरचराते थे,
डाली-डाली नभचर बैठे चहचहाते थे,
जब भी पवन का हल्का सा झोंका आता था,
रंगबिरंगा तरुवर पुष्पों को बरसाता था,
कोंपलों ने नवजीवन का गीत सुनाया,
भंवरों की गुंजन ने पीड़ित चित्त को बहलाया |
रोज़ की आपाधापी से मुझे फुर्सत की दरकार क्यों ?
जीवन में ले आता हूँ मैं पतझड़ की बयार क्यों ?
भीतर झाँका पाया सदा मन-उपवन में बहार है |||
फ़रवरी 23, 2023
तेरी बाँहें
खिल रहे हों फूल जैसे इक उजड़ी सी बगिया में,
बरस पड़ा हो प्रताप जैसे इक सूखी सी नदिया पे,
टपक रहीं हों बूँदें जैसे शुष्क दरकती वसुधा पे,
पड़ रही हो छाया जैसे एक थके मुसाफिर पे,
अनुभव ऐसा होता मुझको तेरी बाँहों के घेरे में ||
जनवरी 30, 2023
चाँद और रजनी की प्रेम कहानी
चाँद ने रजनी से कहा –
मैं उजला श्वेत सलोना सा,
तू काली स्याह कुरूपनी,
मैं प्रेम का रूपक हूँ,
तू अँधियारे की दासिनी,
अपनी कौमुदी को मैं तुझ,
तमस्विनी पर क्यों बरसाऊं?
मैं भोर के प्रेम में रत हूँ,
निशा को क्यों मैं अपनाऊं?
रजनी ने चंदा से कहा –
तू दिनकर की आभा से प्रोत,
दंभ से क्यों इतराता है?
तू बदलाव का रूपक है,
प्रभात को तू ना भाता है,
ऊषा को भास्कर का वर है,
मैं श्रापित तन्हा कलंकिनी,
अपनी कांति मुझपर बरसा,
मैं तेरे प्यार की प्यासिनी ||
जनवरी 24, 2023
चौपाल का बरगद
दादा मेरे कहते थे –
जब गाँव में सड़कें ना थीं,
ना पानी था ना बिजली थी,
तब भी गुमसुम इन राहों पर,
गाँव के बीच चौपाल पर,
एक अतिविशाल बरगद था |
बरगद की शीतल छाया में,
पंचायत बैठा करती थी,
गाँव समाया करता था,
बच्चे भी खेला करते थे,
सावन में झूले सजते थे,
हलचल का केंद्र वो बरगद था |
बरगद की असंख्य भुजाओं पर,
कोयलें कूका करती थीं,
गिलहरियाँ फुदकतीं थीं,
मुसाफ़िर छाया पाते थे,
दिन में वहीं सुस्ताते थे,
जटाओं भरा वो बरगद था |
गाँव में अब मैं रहता हूँ,
लकड़ी लेकर मैं चलता हूँ,
गुमसुम सी उन्हीं राहों पर,
गाँव के बीच चौपाल पर,
पोते को अपने कहता हूँ –
देखो यह वो ही बरगद है ||
दिसंबर 09, 2022
धारा का पेड़
एक बार मैंने देखा
बरसाती नदी के बहाव में
एक पेड़ खड़ा था,
जैसे कुरुक्षेत्र की भूमि पर
अपने नातेदारों से
अभिमन्यु लड़ा था |
विपरीत परिस्तिथियों से
धारा के प्रचंड प्रवाह से
किंचित न डरा था,
घोंसले में बैठे चंद
पंछियों को बारिश से
वो अकेला आसरा था |
विपत्तियों की बाढ़ में
टूट कर बिखरा नहीं
अपितु अधिक हरा था,
अगले साल मैंने देखा
सावन के महीने में फ़िर
वो पेड़, वहीं खड़ा था ||
नवंबर 26, 2022
कुछ तो कहते हैं ये पत्ते
बरखा की बूंदों सरीख,
बयार में जब ये बहते,
कल डाली से बंधे थे,
आज कूड़े के ढेर में रहते |
पतझड़ की हवाओं में,
बसंत का एहसास बनते,
कोंपल रूप में फिर आयेंगे,
नवारम्भ की गाथा कहते ||
जून 04, 2022
मध्यमवर्गीय परिवार
मध्यमवर्गीय परिवार,
कूलर एक व्यक्ति चार,
दो कमरे का घरबार,
दाल रोटी और अचार,
कष्टों की है भरमार,
करते ना कभी इज़हार,
जुगाड़ में हैं बड़े होशियार,
सीमित साधन एवं विचार,
पड़ोसियों से है व्यवहार,
कानाफूसी और चटकार,
दो पहियों पर संसार,
छुट्टी बीते सपरिवार,
चाहते हैं छोटी सी कार,
धन के आगे हैं लाचार,
आँखों में सपने हज़ार,
पूरा करना बजट के बाहर,
सहते हैं महँगाई की मार,
सुनती ना इनकी सरकार,
सेल का रहता इंतज़ार,
मोल-भाव करते हर बार,
राशन की लम्बी कतार,
मुफ़्त धनिया है अधिकार,
संभाल के रखते हैं अखबार,
बाद में बिकता बन भंगार,
मेहनत का हैं भण्डार,
किस्मत की रहती दरकार,
पुरखों का करते सत्कार,
बच्चों में है शिष्टाचार,
समझौते जीवन का सार,
इच्छापूर्ति है दुष्वार,
परिवार में परस्पर प्यार,
छोटी-छोटी खुशियाँ अपार ||
मई 28, 2022
गर्मी का Lockdown
सड़कें सारी कोरी हैं, घर में भी तुम झुलसाते हो,
दिन तक तो ठीक है, रातों को भी गरमाते हो,
कोरोना अब कम है, फ़िर भी Lockdown लगवाते हो,
सूरज दादा बोलो तुम, सर्दी में क्यों नहीं आते हो ??
मई 24, 2022
शतरंज की बिसात पर
शतरंज की बिसात पर,
कपट की चाल है चली,
ज़रा ठहर, ज़रा संभल,
सम्मुख तेरे है छली,
फुफकारता भुजंग सा,
बैरी बड़ा महाबली,
साहस जुटा तू रह निडर,
असि उठा तू वार कर,
खुदा का हाथ थाम चल,
सन्मार्ग पर तू रह अटल,
शतरंज की बिसात पर,
शिकस्त की चाल है चली ||
मई 14, 2022
जीवन सागर
जीवन एक विस्तृत सागर है,
मन उसमें बहती नौका है,
अनुभव ही नाना टापू हैं,
लहरें भाग्यरेखा है |
टापू पर यात्री मिलते हैं,
मैंने अक्सर यह देखा है,
भेंट लघु ही होती है,
नियम यह अनोखा है |
दुखदायी यादें पत्थर हैं,
सुख एक फ़ूलों का खोखा है,
सागर में बहती नौका में,
भारी पत्थर क्यों रखा है ?
मार्च 05, 2022
शेन वार्न को श्रद्धांजलि
आज स्वर्ग में एक क्रिकेट मैच का आयोजन हो रहा है | हमारे सारे पूर्वज दर्शक दीर्घा में बैठे हैं | नर्क से सभी दिवंगत नेताओं को भी आमंत्रित किया गया है | और मैदान में खेलने के लिए उतरे हैं क्रिकेट जगत के दो दिग्गज जिनके स्वागत में मैं चंद शब्द कहूँगा –
स्वर्ग में भी आज, क्या गज़ब माहौल होगा,
बैटिंग करेंगे ब्रैडमैन, बॉलर वार्न होगा ||
अक्टूबर 15, 2021
मेरे राम, मेरे राम
अंत समय में रावण ने श्रीराम से कहा -
मेरे राम, मेरे राम
तू स्वामी मैं जंतु आम,
मेरे राम, मेरे राम
तू ज्ञानी मैं मूरख अनजान,
मेरे राम, मेरे राम
याचक को दे क्षमादान,
मेरे राम, मेरे राम
ले चल अब तेरे धाम,
मेरे राम, मेरे राम ||
सितंबर 25, 2021
वो सुबह कभी तो आएगी
जब पैरों में बेड़ी नहीं,
कंधों पर खुलते पर होंगे,
जब किस्मत में पिंजरा नहीं,
खुला नीला गगन होगा,
जब बंदिश का बंधन नहीं,
अविरल धारा सा मन होगा,
जब जागते नयनों में भी,
सच होता हर स्वपन होगा ||
सितंबर 12, 2021
काश! तितली बन जाऊँ !
नन्हे-नन्हे पर हों मेरे,
फूलों पर मैं मंडराऊँ,
रंगों का पर्याय बनूँ मैं,
कीट कभी ना कहलाऊँ,
सोचा करता हूँ अक्सर मैं,
काश! तितली बन जाऊँ !
जनम भले ही जैसा भी हो,
गाथा अपनी खुद लिख पाऊँ,
पिंजरे को तोड़ मैं इक दिन,
पंख फैला कर उड़ जाऊँ,
सोचा करता हूँ अक्सर मैं,
काश! तितली बन जाऊँ !
अंधड़ में बहकर भी मैं बस,
सुंदरता ही फैलाऊँ,
दो क्षण ही अस्तित्व अगर हो,
जीवनभर बस मुस्काऊँ,
सोचा करता हूँ अक्सर मैं,
काश! तितली बन जाऊँ !!
जुलाई 20, 2021
पिंजरे का पंछी
मैं बरखा की बूँदों सा बादलों में रहता हूँ,
पवन के झोकों में मैं मेघों की भांति बहता हूँ,
डैनों को अपने फैलाए नभ पर मैं विचरता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ |
मैं जब जी चाहे सोता हूँ जब जी चाहे उठता हूँ,
घोंसले को संयम से तिनका-तिनका संजोता हूँ,
धन की ख़ातिर ना सुन्दर लम्हों की ख़ातिर जीता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ |
पैरों में मेरे बेड़ी है पंखों पर कतरन के निशान,
जीवन में मेरे बाकी बस – बंदिश लाचारी और
अपमान,
पिंजरे में कैद बेबस मैं सपना एकल बुनता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ ||
अप्रैल 15, 2021
ये इमारत !
नवयौवन के आँगन में,
सौंदर्य के परचम पर,
अनुपम रंगो को कर धारण,
अभिमान का बन उदाहरण,
अपने ही आकर्षण से अभिभूत,
कैसे गौरवान्वित हो रही है ये इमारत !
अपराह्न की बेला में,
गफलत के सबब से,
रूप-रंग थोड़ा है बाकी,
गुज़रे लम्हों का है साक्षी,
बनकर अपनी बस एक झाँकी,
कैसे जीर्ण-क्षीण हो रही है ये इमारत !
कभी कौतूहल का कारण बनी,
खिदमतगारों से रही पटी,
आज खंडहर हो चली है,
सूखे पत्तों की डली है,
माटी में मिलने को आतुर,
कैसे छिन्न-भिन्न हो रही है ये इमारत !
मार्च 11, 2021
क्या देखूँ मैं ?
रिमझिम बरखा के मौसम में,
घोर-घने-गहरे कानन में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
रंगों की कान्ति से उज्जवल,
सरिता की धारा सा अविरल,
डैनों के नर्तन, की संगी
दो भद्दी फूहड़ टहनियाँ !
लहराते पंखों की शोभा,
या बेढब पैरों की डगमग,
क्या देखूँ मैं ?
माटी के विराट गोले पर,
माया की अद्भुत क्रीड़ा में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
बहती बयार की भांति
जीवनधारा, के हमराही
सुख के लम्हों, का साथी
किंचित कष्टों का रेला है !
हर्षित मानव का चेहरा,
या पीड़ित पुरुष अकेला,
क्या देखूँ मैं ?
पल दो पल की इन राहों में,
वैद्यों के विकसित आलय में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इत गुंजित होती किलकारी,
अंचल में नटखट अवतारी,
उत शोकाकुल क्रन्दनकारी,
बिछोह के गम से मन भारी !
उत्पत्ति का उन्मुक्त उत्सव,
या विलुप्ति का व्याकुल वास्तव,
क्या देखूँ मैं ?
जनमानस के इस जमघट में,
द्वैत के इस द्वंद्व में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इस ओर करुणा का सागर,
दीनों के कष्टों के तारक,
उस ओर पापों की गागर,
स्वर्णिम मृग रुपी अपकारक !
उपकारी सत के साधक,
या जग में तम के वाहक,
क्या देखूँ मैं ?
मेरे अंत:करण के भीतर,
चित्त की गहराइयों के अंदर,
मन के नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इक सुगंधित मनोहर फुलवारी,
कंटक से डाली है भारी,
काँटों से विचलित ना होकर,
गुल पर जाऊं मैं बलिहारी !
पवन के झोकों में रहकर,
भी निर्भीक जलते दीपक,
को देखूँ मैं !
सदस्यता लें
संदेश (Atom)