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दिसंबर 31, 2021
जून 07, 2021
अल्पविराम,
वक्त के पहियों से भी गतिमान थी ज़िंदगी,
वक्त की भांति ही सतत चलायमान थी ज़िंदगी,
वक्त के पहिये ने रुख ऐसा अपना मोड़ लिया,
रैन के उपरांत सूरज ने निकलना छोड़ दिया,
कष्टों के सैलाब में इंसान मानो बह गया,
जो जहाँ था वो वहीँ पर बस, रह गया,
आस है तम को भेदती फिर घाम हो,
पूर्ण नहीं ये जीवन का बस एक अल्पविराम हो ||
मई 27, 2021
कतार
फल-सब्ज़ी और राशन की खातिर मारा-मार है,
सब व्यवसाय ठप, केवल इनमें ही व्यापार है,
प्राणों को वायु नहीं, प्राणवायु की दरकार है,
सिलेण्डर अब अलग है, पर लगती वही कतार है,
अस्पतालों पर पीड़ित रुग्णों का प्रचंड भार है,
दवा तो मिलती नहीं, दारू की भरमार है,
ज़िंदों की तो छोड़ो, मुर्दों में भी तकरार है,
श्मशानों में भी लगती, लंबी-लंबी कतार है ||
मई 23, 2021
ए माया ! तू क्या करती है ?
ए माया ! तू क्या करती है ?
सुख के लम्हों को हरती है,
पुलकित मन में गम भरती है,
माथे की लाली हरती है,
भरी कोख सूनी करती है,
पालक का साया हरती है,
जीते-जी मुर्दा करती है,
अल्पायु में प्राण हरती है,
ए माया ! तू क्या करती है ?
मई 17, 2021
बहते-बहते एकाएक वक़्त कितना बदल जाता है
सुसज्जित जिन बाजारों में,
गलियों में और चौबारों में,
बहती थी जीवन की धारा,
रहता अस्पष्ट सा एक शोर,
बसता था मानव का मेला,
क्रय-विक्रय की बेजोड़ होड़ |
वहाँ पसरा अब सन्नाटा है,
दहशत से कोई ना आता है,
अपने ही घर में हर कोई,
खुद को बंदी अब पाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
वीरान उन मैदानों में,
कब्रिस्तानों में श्मशानों में,
एकाध ही दिन में आता था,
संग अपने समूह लाता था,
विस्तृत विभिन्न रीतियों से,
माटी में वह मिल जाता था |
वहाँ मृतकों का अब तांता है,
संबंधी संग ना आता है,
अंतिम क्षणों में भी देह,
समुचित सम्मान ना पाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
शहर के उन बागानों में,
युगलों की पनाहगाहों में,
जहाँ चलते थे बल्ला और गेंद,
सजती थी यारों की महफ़िल,
खिलते थे विविधाकर्षक फ़ूल ,
जो थे सप्ताहांत की मंज़िल |
वहाँ सजती अब चिताएँ हैं,
मरघट बनी वाटिकाएँ हैं,
अस्थि के फूलों को चुनकर,
कलशों में समेटा जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
आधुनिक दवाखानों में,
खूब चलती उन दुकानों में,
रोगों के भिन्न प्रकार थे,
उतने ही अलग उपचार थे,
आशा से रोगी जाता था,
अक्सर ठीक होकर आता था |
वहाँ बस अब एक ही रोग है,
जिसका ना कोई तोड़ है,
उखड़ती साँसों से बोझिल,
स्थापित तंत्र लड़खड़ाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
कोलाहली कारखानों में,
व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में,
दूरस्थ स्थानों के बाशिंदे,
करते थे श्रम दिन और रात,
रहता था मस्तक पर पसीना,
मन में सुखमय जीवन की आस |
वहाँ उड़ती अब धूल है,
मरना किसको कबूल है,
नगरों से वापस अपने गाँव,
पैदल ही जत्था जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
टूटी-फूटी उन सड़कों पर,
गुफा समतुल्य गड्ढों पर,
चलते थे वाहन कई प्रकार,
रहती थी दिनभर भीड़-भाड़,
इक-दूजे से आगे होने में,
होती थी अक्सर तकरार |
वो सड़कें सारी कोरी हैं,
ना वाहन है ना बटोही है,
अब अक्सर उन मार्गों पर,
रसायन छिड़का जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
विद्या के उन संस्थानों में,
शिक्षण प्रतिष्ठानों में,
जहाँ हरदम चहकते चेहरे थे,
दोस्ती के रिश्ते गहरे थे,
शिक्षा का प्रसाद मिलता था,
कलियों से फूल खिलता था |
वहाँ लटका अब ताला है,
ना कोई पढ़नेवाला है,
ज्ञान के अनुयायियों का,
दूभर-दुष्कर हर रास्ता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
छोटे-बड़े परिवारों में,
घरों में, त्योहारों में,
लोगों का आना-जाना था,
मिलने का सदा बहाना था,
सुख-दुःख के सब साथी थे,
हर मोड़ पर साथ निभाते थे |
अब सब घरों में बंद हैं,
ना मिलते हैं, ना संग हैं,
घर ही दफ़्तर कहलाता है,
कोई कहीं ना जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है ||
फ़रवरी 04, 2021
कोरोना वैक्सीन
क्षितिज पर छाई है लाली,
लाई सुबह का संदेसा,
घर से बाहर फिर निकलेंगे,
खाने चाट और समौसा,
तब तक लेकिन रखना होगा,
परस्पर दूरी पर ही भरोसा ||
फ़रवरी 03, 2021
कोरोना के अनुभव
चंद हफ़्तों पहले मेरा सामना कोरोना से हुआ | अपने अनुभव को शब्दों में ढालने का एक प्रयत्न किया है |
अपने घर का सुदूर कोना,
नीरस मटमैला बिछौना,
विचरण की आज़ादी खोना,
अपने बर्तन खुद ही धोना,
गली-मौहल्ले में कुख्यात होना,
कि आप लाए हो कोरोना |
परस्पर दूरी का परिहास,
खुले मुँह लेते थे जो श्वास,
करते हैं अब यह विश्वास,
बसता रोग इन्हीं के पास,
रखना दूरी इनसे खास,
बाकी सब सावधानियाँ बकवास |
तन के कष्टों से ज़्यादा,
मन की पीड़ा थी चुभती,
अपनी सेहत से ज़्यादा,
अपनों की व्यथा थी दीखती,
रोगी सा एहसास ना होता,
बंधक सी अनुभूति रहती |
जीवन के सागर की ऊँची,
लहरों को मैंने पार किया,
लेकिन मेरे जैसे जाने,
कितनों को इसने मार दिया,
शोषण से त्रस्त होकर शायद,
कुदरत ने ऐसा वार किया ||
जनवरी 04, 2021
नववर्ष की शुभकामनाएँ
कष्टों की काली रात में,
गुज़रा यह पूरा साल था,
कष्टों से मुक्ति की सुबह,
आशा है 21 संग लाए ||
सितंबर 26, 2020
कोरोना
यह अनजाना अदृश्य शत्रु,
जाने कहाँ से आया है,
सारी मानव सभ्यता पर,
इसके भय का साया है |
थम गया जो दौड़ रहा था,
निरंतर निरंकुश - यह संसार,
अचल हुए जो चलायमान थे,
व्यक्ति वाहन और व्यापार |
संगी-साथी से छूट गया,
दिन-प्रतिदिन का सरोकार,
घर से बाहर अब ना जाए,
सांसारिक मानव बार-बार |
आशंकित भयभीत किंकर्तव्यविमूढ़,
जूझ रहा आदम भरपूर,
क्या कर पाएगा इस आफ़त को,
वह समय रहते दूर ???
अगस्त 20, 2020
क्यों है मानव इतना अधीर ?
हिंसा का करे अभ्यास,
प्रकृति का करे विनाश,
अणु-अणु करके विखंडित,
ऊष्मा का करे विस्फोट,
स्वजनों पर करे अत्याचार,
लकीरों से धरा को चीर,
क्यों है मानव इतना अधीर ?
ट्रेनों में चढ़ती भीड़,
ना समझे किसीकी पीड़,
रनवे पे उतरे विमान,
उठ भागे सीट से इंसान,
बेवजह लगाए कतार,
मानो बंटती आगे खीर,
क्यों है मानव इतना अधीर ?
उड़ती जब-जब पतंग,
स्वच्छंद आज़ाद उमंग,
करती घायल उसकी डोर,
जो थी काँच से सराबोर,
खेल-खेल में होड़ में,
धागे को बनाता नंगा शमशीर,
क्यों है मानव इतना अधीर ?
नवीन नादान निर्दोष मन,
चहकती आँखें कोमल तन,
डाल उनपर आकांशाओं का भार,
करता बालपन का संहार,
थोपता फैसले अपने हर बार,
समझता उनको अपनी जागीर,
क्यों है मानव इतना अधीर ?
तारों को छूने की चाह में,
वशीभूत सृष्टि की थाह में,
वन-वसुधा-वायु में घोले विष,
बेवजह करे प्रकृति से रंजिश,
ना समझे कुदरत के इशारे,
कर्मफल के प्रति ना है गंभीर,
क्यों है मानव इतना अधीर ?
दौर यह अद्वितीय आया है,
दो गज की दूरी लाया है,
सदियों से परदे में नारी,
आज नर ने साथ निभाया है,
कुछ निर्बुद्धि निरंकुश निराले नर,
तोड़ें नियम समझें खुद को वीर,
क्यों है मानव इतना अधीर ?
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