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नवंबर 03, 2022
सितंबर 16, 2022
रस्ते पर गिरा पेड़
वो सड़क जो दो दिलों को जोड़ती थी,
प्रेम की धरा पे जो दौड़ती थी,
आज दो भागों में वो बंट चुकी है,
मौजूद है वहीं मगर कट चुकी है,
अहं का वृक्ष मार्ग पर गिर चुका है,
भावों का आवागमन थम चुका है,
कोई इस तरु को राह से सरकाए,
दो दिलों की दूरियों को भर जाए ?
जून 29, 2022
उदयपुर के कन्हैयालाल जी को श्रद्धांजलि
क्या सिर्फ़ फाँसी पर्याप्त है ?
मौत की सज़ा भी इस आतंक पे काफ़ी नहीं,
हो ऐसा इंसाफ जो मिसाल बनना चाहिए ||
जून 19, 2022
ये साली ज़िंदगी !
अथाह अगाध सागर जैसी,
है ये साली ज़िंदगी !
पहला जनम दूजा तट मृत्यु,
यात्रा भारी ज़िंदगी !
ज़िन्दों का उपहास करती,
है ये साली ज़िंदगी !
कष्टों के लवण से परिपूर्ण,
जलधि खारी ज़िंदगी !
बूँदों में सुख को टपकाती,
है ये साली ज़िंदगी !
निकट पहुँचते ही उड़ जाती,
बूँदें, सारी ज़िंदगी !
फ़रवरी 20, 2022
सरहद
हवा के झोकों में लहराती फसलों के बीच में,
अपनी मेहनत के पसीने से धरती को सींच के,
सूरज की तपती किरणों से आँखों को भींच के,
बचपन के अपने यार को उसके खेत से आते देखा |
कंधे पर उसके झोला था माथे पर मेहनत के निशान,
कपड़ों पर उसके मिट्टी थी मेरे ही कपड़ों के समान,
मेरी दिशा में अपनी बूढ़ी गर्दन को मोड़ के,
मेरी छवि को देख उसके चेहरे को मुरझाते देखा |
मैं पेड़ों के ऊपर चढ़ता वो नीचे फ़ल पकड़ता था,
मास्टर की मोटी बेंत से मेरे जितना वो डरता था,
जाने कितनी ही रातों को टूटे-फूटे से खाट पर,
बचपन में असंख्य तारों को हमने झपकते देखा |
वो नहरों में नहाना संग में बैठ कर खाना,
इक-दूजे के घर में सारा-सारा दिन बिताना,
छोटी-छोटी सी बातों पर कभी-कभी लड़ जाना,
बचपन की मीठी यादों को नज़रों में मंडराते देखा |
बस यादों में ही संग हैं, दूरी हममें अब हरदम है,
चंद क़दमों का है फ़ासला पर मिलना अब ना संभव है,
अपनी खेतों की सीमा से सटे लोहे के स्तंभ पर,
क्षितिज तक सरहद के बाड़े को हमने जाते देखा ||
फ़रवरी 11, 2022
पढ़ाई करो, लड़ाई नहीं
शिक्षण संस्थानों में धार्मिक महिमा-मंडन का कोई स्थान नहीं होना चाहिए | पढ़ाई करो, लड़ाई नहीं |
दो सालों से वैसे भी,
शिक्षा पर लगी है लगाम,
धरम को थोड़ा बगल में रखो,
ज्ञान के छुओ नए आयाम ||
जुलाई 04, 2021
फूल चले जाते हैं, काँटे सदा सताते हैं
छरहरी सी इक डाली पर घरौंदा अपना बसाते हैं,
कंटक के घेरे में भी, गुल खिलखिलाते हैं,
अपने रंगों की आभा से, उपवन को सजाते हैं,
मुरझाए मुखड़े पर भी, मुस्कान फ़ेर जाते हैं,
पर खुशियों के ये क्षण, दो पल को ही आते हैं,
फूल चले जाते हैं, काँटे सदा सताते हैं ||
जून 29, 2021
बचपन
वो बेफिक्री, वो मस्ती और वो नादानी,
वो शेरों की चिड़ियों-परियों की कहानी,
वो सड़कों पर कल-कल बहता बरखा का पानी,
उसमें तैराने को कागज़ की कश्ती बनानी,
वो चुपके से पैसे देती दादी-नानी,
वो आँचल की गहरी निद्रा सुहानी,
वो यारों संग धूप में साईकिल दौड़ानी,
वो बागों में मटरगश्ती और शैतानी,
वो दौर था जब खुशियों की सीमाएं थीं अनजानी,
वो दौर था जब हमने जग की सच्चाईयाँ थीं ना जानी,
ये कैसा एकांत लेकर आई है जवानी,
इससे तो बेहतर थी बचपन की नादानी ||
मई 27, 2021
कतार
फल-सब्ज़ी और राशन की खातिर मारा-मार है,
सब व्यवसाय ठप, केवल इनमें ही व्यापार है,
प्राणों को वायु नहीं, प्राणवायु की दरकार है,
सिलेण्डर अब अलग है, पर लगती वही कतार है,
अस्पतालों पर पीड़ित रुग्णों का प्रचंड भार है,
दवा तो मिलती नहीं, दारू की भरमार है,
ज़िंदों की तो छोड़ो, मुर्दों में भी तकरार है,
श्मशानों में भी लगती, लंबी-लंबी कतार है ||
मई 23, 2021
ए माया ! तू क्या करती है ?
ए माया ! तू क्या करती है ?
सुख के लम्हों को हरती है,
पुलकित मन में गम भरती है,
माथे की लाली हरती है,
भरी कोख सूनी करती है,
पालक का साया हरती है,
जीते-जी मुर्दा करती है,
अल्पायु में प्राण हरती है,
ए माया ! तू क्या करती है ?
मई 17, 2021
बहते-बहते एकाएक वक़्त कितना बदल जाता है
सुसज्जित जिन बाजारों में,
गलियों में और चौबारों में,
बहती थी जीवन की धारा,
रहता अस्पष्ट सा एक शोर,
बसता था मानव का मेला,
क्रय-विक्रय की बेजोड़ होड़ |
वहाँ पसरा अब सन्नाटा है,
दहशत से कोई ना आता है,
अपने ही घर में हर कोई,
खुद को बंदी अब पाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
वीरान उन मैदानों में,
कब्रिस्तानों में श्मशानों में,
एकाध ही दिन में आता था,
संग अपने समूह लाता था,
विस्तृत विभिन्न रीतियों से,
माटी में वह मिल जाता था |
वहाँ मृतकों का अब तांता है,
संबंधी संग ना आता है,
अंतिम क्षणों में भी देह,
समुचित सम्मान ना पाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
शहर के उन बागानों में,
युगलों की पनाहगाहों में,
जहाँ चलते थे बल्ला और गेंद,
सजती थी यारों की महफ़िल,
खिलते थे विविधाकर्षक फ़ूल ,
जो थे सप्ताहांत की मंज़िल |
वहाँ सजती अब चिताएँ हैं,
मरघट बनी वाटिकाएँ हैं,
अस्थि के फूलों को चुनकर,
कलशों में समेटा जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
आधुनिक दवाखानों में,
खूब चलती उन दुकानों में,
रोगों के भिन्न प्रकार थे,
उतने ही अलग उपचार थे,
आशा से रोगी जाता था,
अक्सर ठीक होकर आता था |
वहाँ बस अब एक ही रोग है,
जिसका ना कोई तोड़ है,
उखड़ती साँसों से बोझिल,
स्थापित तंत्र लड़खड़ाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
कोलाहली कारखानों में,
व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में,
दूरस्थ स्थानों के बाशिंदे,
करते थे श्रम दिन और रात,
रहता था मस्तक पर पसीना,
मन में सुखमय जीवन की आस |
वहाँ उड़ती अब धूल है,
मरना किसको कबूल है,
नगरों से वापस अपने गाँव,
पैदल ही जत्था जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
टूटी-फूटी उन सड़कों पर,
गुफा समतुल्य गड्ढों पर,
चलते थे वाहन कई प्रकार,
रहती थी दिनभर भीड़-भाड़,
इक-दूजे से आगे होने में,
होती थी अक्सर तकरार |
वो सड़कें सारी कोरी हैं,
ना वाहन है ना बटोही है,
अब अक्सर उन मार्गों पर,
रसायन छिड़का जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
विद्या के उन संस्थानों में,
शिक्षण प्रतिष्ठानों में,
जहाँ हरदम चहकते चेहरे थे,
दोस्ती के रिश्ते गहरे थे,
शिक्षा का प्रसाद मिलता था,
कलियों से फूल खिलता था |
वहाँ लटका अब ताला है,
ना कोई पढ़नेवाला है,
ज्ञान के अनुयायियों का,
दूभर-दुष्कर हर रास्ता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
छोटे-बड़े परिवारों में,
घरों में, त्योहारों में,
लोगों का आना-जाना था,
मिलने का सदा बहाना था,
सुख-दुःख के सब साथी थे,
हर मोड़ पर साथ निभाते थे |
अब सब घरों में बंद हैं,
ना मिलते हैं, ना संग हैं,
घर ही दफ़्तर कहलाता है,
कोई कहीं ना जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है ||
अप्रैल 02, 2021
भगवान ! कहाँ है तू?
जब निहत्थे निरपराधों को सूली पे चढ़ाया जाता है,
जब सरहद पर जवानों का रुधिर बहाया जाता है,
जब धन की ख़ातिर अपने ही बंगले को जलाया जाता है,
जब तन की ख़ातिर औरत को नज़रों में गिराया जाता है,
जब नन्हे-नन्हे बच्चों को भूखे ही सुलाया जाता है,
जब पत्थर की तेरी मूरत पर कंचन को लुटाया जाता है,
जब सच के राही को हरदम बेहद सताया जाता है,
जब गौ के पावन दूध में पानी को मिलाया जाता है,
जब तेरे नाम पर अक्सर पाखण्ड फैलाया जाता है,
जब तेरे नाम पर हिंदू-मुस्लिम को लड़ाया जाता है,
तब-तब मेरे दिल में बस एक ख्याल आता है,
तू सच में है भी या बस किस्सों में ही बताया जाता है ||
मार्च 14, 2021
मैं हँसना भूल गया
जब बचपन के मेरे बंधु ने,
चिर विश्वास के तंतु ने,
पीछे से खंजर मार कर,
मेरा भरोसा तोड़ दिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब मेरे दफ़्तर में ऊँचे,
पद पर आसीन साहब ने,
मेरे श्रम को अनदेखा कर,
चमचों से नाता जोड़ लिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब जन्मों के मेरे साथी ने,
सुख और दुःख के हमराही ने,
दुःख के लम्हों को आता देख,
साथ निभाना छोड़ दिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब वर्षों तक सींचे पौधे ने,
उस मेरे अपने बालक ने,
छोटी-छोटी सी बातों पर,
मेरा भर-भर अपमान किया,
मैं हँसना भूल गया |
जिसकी गोदी में रहता था,
जब उस प्यारे से चेहरे ने,
मेरी लाई साड़ी को छोड़,
श्वेत कफ़न ओढ़ लिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब मंज़िल की ओर अग्रसर,
पहले से मुश्किल राहों को,
नियति की कुटिल चाल ने,
हर-हर बार मरोड़ दिया,
मैं हँसना भूल गया |
फ़रवरी 18, 2021
टूटा दिल
गलती मेरी थी जो मैंने तुझसे कुछ उम्मीद की,
उसको पूरा करने की तुझसे मैंने ताकीद की ||
नवंबर 28, 2020
बेमतलब है
मतलब की सारी दुनिया है,
मतलब के सारे रिश्ते हैं,
जिसको मेरी कदर नहीं,
उससे रिश्ता बेमतलब है |
सबके अपने मसले हैं,
सबके अपने मंसूबे हैं,
मन के बहरों से क्या बोलूं,
कुछ भी कहना बेमतलब है |
जीते-जी जीना ना जाना,
कल के जीवन पर पछताना,
हालात बदलने से कतराना,
ऐसा जीवन बेमतलब है ||
फ़रवरी 27, 2020
अकेला
दुनिया के इस रंगमंच पे,
तू अकेला अदाकार है,
ना तेरा कोई साथी,
ना तेरा कोई विकल्प है |
गम अगर हो कोई तुझे,
तो कोई ना उसको बांटेगा,
खुश अगर तू हो गया,
तो गम मौका ताकेगा |
मौका मिलते ही फिरसे,
खुशी तेरी गायब होगी,
गम लौट के आएगा,
दुखी तेरी फितरत होगी ||
मदद किसी की करदे तो,
भलामानस कहलायेगा,
मदद किसी से मांगेगा,
सिर्फ दुत्कार ही पायेगा |
पीठ पीछे बातें होंगी,
खिल्ली तेरी खूब उड़ेगी,
कल तक जो अपने लगते थे,
दूरी उनसे खूब बढ़ेगी ||
सही-गलत में क्या भेद है,
दुनिया इसको भूल चुकी है,
अपना जिसमें लाभ हो,
बाकी गलत सिर्फ़ वही सही है |
सच्चाई का साथ अगर दे,
तो झूठा कहलायेगा,
दुनिया तुझपे थूकेगी,
कुंठित मन हो जाएगा ||
छोड़ दे दूजे की परवाह,
छोड़ दे खुशियों की चाहत,
छोड़ दे सच्चाई का साथ,
सुन ए बंदे पते की बात |
कोई न तेरा अपना है,
कोई न तुझको अपनाएगा,
इस झूठी दुनिया में,
तू,
अकेला आया था,
अकेला ही जाएगा ||
जनवरी 20, 2020
माया
धन की क्या आवश्यकता है? धन सिर्फ एक छलावा है | मोह है | माया है | सत्य की परछाईं मात्र है, जो सिर्फ अंधकार में दिखाई पड़ती है | उजाले में इसका कोई अस्तित्व नहीं | धन सब परेशानियों की जड़ है | सब अपराधों की जननी है | सब व्यसनों का आरम्भ है |
कुदरत ने सब जीव बनाए,
पशु पक्षी मत्स्य तरु,
जल भूमि गिरी आकाश,
कंद मूल फल फूल खिलाए,
अंधकार से दिया प्रकाश ||
पर मनुष्य, तूने क्या दिया?
लोभ मोह दंभ अहंकार,
भेदभाव ऊँच-नीच तकरार !
धन को सर्वोपरि बनाया,
धनी निर्धन में भेद कराया,
माया के इस पाश में फंसकर,
कुदरत को तू समझ न पाया ||
जनवरी 19, 2020
जीवन
जी ना चाहे जीना,
पर जीवन पड़ेगा जीना,
जीवन एक इंतज़ार है,
मृत्यु सत्य साकार है,
उस दिन का इंतज़ार है,
जब चढूँगा मौत का जीना ||
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