Mann Ke Bhaav offers a vast collection of Hindi Kavitayen. Read Kavita on Nature, sports, motivation, and more. Our हिंदी कविताएं, Poem, and Shayari are available online!
अप्रैल 02, 2021
मार्च 29, 2021
होली
जीवन में सबके घुल जाएँ खुशियों के हज़ारों रंग,
घृणा रोग सब मिट जाएँ, छाए चहुँ ओर उल्लास उमंग |
मार्च 21, 2021
नुक्कड़
गली के नुक्कड़ पर रोज़,
उनके रूबरू आता हूँ |
फासले इतने हैं मगर ,
कुछ भी कह ना पाता हूँ ||
मार्च 14, 2021
मैं हँसना भूल गया
जब बचपन के मेरे बंधु ने,
चिर विश्वास के तंतु ने,
पीछे से खंजर मार कर,
मेरा भरोसा तोड़ दिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब मेरे दफ़्तर में ऊँचे,
पद पर आसीन साहब ने,
मेरे श्रम को अनदेखा कर,
चमचों से नाता जोड़ लिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब जन्मों के मेरे साथी ने,
सुख और दुःख के हमराही ने,
दुःख के लम्हों को आता देख,
साथ निभाना छोड़ दिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब वर्षों तक सींचे पौधे ने,
उस मेरे अपने बालक ने,
छोटी-छोटी सी बातों पर,
मेरा भर-भर अपमान किया,
मैं हँसना भूल गया |
जिसकी गोदी में रहता था,
जब उस प्यारे से चेहरे ने,
मेरी लाई साड़ी को छोड़,
श्वेत कफ़न ओढ़ लिया,
मैं हँसना भूल गया |
जब मंज़िल की ओर अग्रसर,
पहले से मुश्किल राहों को,
नियति की कुटिल चाल ने,
हर-हर बार मरोड़ दिया,
मैं हँसना भूल गया |
मार्च 11, 2021
क्या देखूँ मैं ?
रिमझिम बरखा के मौसम में,
घोर-घने-गहरे कानन में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
रंगों की कान्ति से उज्जवल,
सरिता की धारा सा अविरल,
डैनों के नर्तन, की संगी
दो भद्दी फूहड़ टहनियाँ !
लहराते पंखों की शोभा,
या बेढब पैरों की डगमग,
क्या देखूँ मैं ?
माटी के विराट गोले पर,
माया की अद्भुत क्रीड़ा में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
बहती बयार की भांति
जीवनधारा, के हमराही
सुख के लम्हों, का साथी
किंचित कष्टों का रेला है !
हर्षित मानव का चेहरा,
या पीड़ित पुरुष अकेला,
क्या देखूँ मैं ?
पल दो पल की इन राहों में,
वैद्यों के विकसित आलय में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इत गुंजित होती किलकारी,
अंचल में नटखट अवतारी,
उत शोकाकुल क्रन्दनकारी,
बिछोह के गम से मन भारी !
उत्पत्ति का उन्मुक्त उत्सव,
या विलुप्ति का व्याकुल वास्तव,
क्या देखूँ मैं ?
जनमानस के इस जमघट में,
द्वैत के इस द्वंद्व में,
मेरे नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इस ओर करुणा का सागर,
दीनों के कष्टों के तारक,
उस ओर पापों की गागर,
स्वर्णिम मृग रुपी अपकारक !
उपकारी सत के साधक,
या जग में तम के वाहक,
क्या देखूँ मैं ?
मेरे अंत:करण के भीतर,
चित्त की गहराइयों के अंदर,
मन के नैनों के दर्पण में,
छवि अनोखी गोचर होती –
इक सुगंधित मनोहर फुलवारी,
कंटक से डाली है भारी,
काँटों से विचलित ना होकर,
गुल पर जाऊं मैं बलिहारी !
पवन के झोकों में रहकर,
भी निर्भीक जलते दीपक,
को देखूँ मैं !
मार्च 08, 2021
आज की नारी
घर को सिर-माथे पर रखूँ,
ढोऊँ सारी ज़िम्मेदारी,
दफ़्तर भी अपने मैं जाऊँ,
बनकर मैं सबला नारी |
अपने माँ-बाबा को मैं हूँ,
जग में सबसे ज़्यादा प्यारी,
कष्टों को उनके हरने की,
करती हूँ पूरी तैयारी |
सुख-दुःख के अपने साथी पर,
दिल से जाऊँ मैं बलिहारी,
कंधे से कंधा मिलाकर,
चलती हमरी जीवनगाड़ी |
ओछी नज़रों से ना भागूँ,
चाहे बोले दुनिया सारी,
बन काली उसको संहारूँ,
वहशी विकृत व्यभिचारी |
अपनी मर्ज़ी से मैं जीऊँ,
सुख भोगूँ सारे संसारी,
मुझपर जो लगाम लगाए,
पड़ेगा, उसे बड़ा भारी |
देवी का सा रूप है मेरा,
हूँ ना मैं अबला बेचारी,
अपने दम पर शिखर को चूमूँ,
मैं हूँ, आज की नारी ||
मार्च 06, 2021
किस्मत
किस्मत की लकीरों में बंधकर,
खुद को तू ना तड़पा,
जो होना है वो तो होएगा,
जो कर सकता है करके दिखा |
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