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मई 17, 2021
बहते-बहते एकाएक वक़्त कितना बदल जाता है
मई 09, 2021
ऐसी मेरी जननी थी
मुझको भरपेट खिलाकर,
वो खुद भूखी रह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी तकलीफ़ मिटाकर,
खुद दर्द वो सह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
अपनी ख्वाहिश दबाकर,
ज़िद मेरी पूरी करती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी मासूम भूलों को,
वो अपने सर मढ़ लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
गर कीटों से मैं डर जाऊं,
झाड़ू उनपर धर देती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी हल्के से ज्वर पर भी,
सारी रात जग लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
रुग्णावस्था में बेदम भी,
मुझको गोदी भर लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
अपने आँचल के कोने से,
मेरे सब गम हर लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी बदतमीज़ी पर वो,
भर-भर कर मुझको धोती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
गर पढ़ते-पढ़ते सुस्ताऊं,
वो दो कस के धर देती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मुझको थप्पड़ मारकर,
खुद चुपके से रो लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
बाहर के लोगों से मेरी,
गलती पर भी लड़ लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरे खोए सामान को,
वो चुटकी में ला कर देती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
आने वाले कल की ख़ातिर,
दूरी मुझसे सह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
तू जमकर बस पढ़ाई कर,
चिठ्ठी उसकी यह कहती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
छुट्टी में घर जाने पर वो,
मेरी खिदमत में रहती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी बातों के फेर में,
वो बस यूँ ही बह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी शादी से भी पहले,
कपड़े नन्हे बुन लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मृत्युशय्या पर होकर भी,
मुझको हँसने को कहती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
उसके जाने के बाद भी,
उसकी ज़रूरत रहती है,
ऐसी मेरी जननी थी ||
मई 06, 2021
क्या पाया, तूने मानव ?
दो पैरों पर सीधा चलके,
वस्त्रों को धारण करके,
कंदराओं से निकलके,
क्या पाया, तूने मानव ?
सरिता में विष मिलाकर,
तरुवर की छाँव मिटाकर,
नगरों में खुद को बसाकर,
क्या पाया, तूने मानव ?
निर्बल पर बल चलाकर,
रुधिर को व्यर्थ बहाकर,
दौलत को खूब जुटाकर ,
क्या पाया, तूने मानव ?
परमार्थ को भुलाकर,
कुकर्मों को अपनाकर,
दमन के पथ पर जाकर,
क्या पाया, तूने मानव ?
मई 01, 2021
गंतव्यपथ
बढ़ते-बढ़ते जब खुद को तुम,
भटका हुआ पाओगे,
अंधियारे में मंज़िल की,
राहों से खो जाओगे,
हालातों से हारकर जब तुम,
बस रुकना चाहोगे |
हिम्मत को अपनी बाँध बस तुम,
आगे बढ़ते जाना,
लक्ष्य की सिद्धी से पहले,
खुद-ब-खुद मत रुक जाना,
क्या मालूम दो पग आगे ही,
लिखा हो मंज़िल पाना ||
अप्रैल 22, 2021
पृथ्वी दिवस
सृष्टि के सुंदर स्वरूप को संकटग्रस्त तू ना कर,
सृष्टि से ही तू है मानव, सृष्टि की रक्षा कर ||
अप्रैल 20, 2021
हारेंगे नहीं हम
मन में संकल्प ठान कर,
काटों को रस्ता मान कर,
बढ़ते जायेंगे हम,
हारेंगे नहीं हम |
इक पग को पीछे रखकर,
दो पग आगे सरककर,
भागेंगे तेज़ हम,
हारेंगे नहीं हम |
हमराही से बिछड़कर,
अपनों से चाहे लड़कर,
भले अकेले हम,
हारेंगे नहीं हम |
सच का हाथ पकड़कर,
दुश्मन के हाथों मरकर,
फिर-फिर जीयेंगे हम,
हारेंगे नहीं हम |
रस्ते में थोड़ा थककर,
ठोकर खाकर और गिरकर,
फिरसे उठेंगे हम,
हारेंगे नहीं हम |
मंज़िल को अपना बनाकर,
राह के काँटों को मिटाकर,
इक दिन जीतेंगे हम,
तब तक,
हारेंगे नहीं हम ||
अप्रैल 15, 2021
ये इमारत !
नवयौवन के आँगन में,
सौंदर्य के परचम पर,
अनुपम रंगो को कर धारण,
अभिमान का बन उदाहरण,
अपने ही आकर्षण से अभिभूत,
कैसे गौरवान्वित हो रही है ये इमारत !
अपराह्न की बेला में,
गफलत के सबब से,
रूप-रंग थोड़ा है बाकी,
गुज़रे लम्हों का है साक्षी,
बनकर अपनी बस एक झाँकी,
कैसे जीर्ण-क्षीण हो रही है ये इमारत !
कभी कौतूहल का कारण बनी,
खिदमतगारों से रही पटी,
आज खंडहर हो चली है,
सूखे पत्तों की डली है,
माटी में मिलने को आतुर,
कैसे छिन्न-भिन्न हो रही है ये इमारत !
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