Mann Ke Bhaav offers a vast collection of Hindi Kavitayen. Read Kavita on Nature, sports, motivation, and more. Our हिंदी कविताएं, Poem, and Shayari are available online!
जून 07, 2021
जून 02, 2021
क्षणभंगुर प्रत्येक तमाशा है
जब नभ पर बहता बादल भी,
बरखा बनकर ढह जाता है,
जब दिनभर जलता दिनकर भी,
संध्या होते ढल जाता है,
जब विध्वंसक सैलाब भी,
साहिल तक फिर थम जाता है,
जब दीनहीन कोई रंक भी,
श्रम से राजा बन जाता है,
जब निर्बल नश्वर हर इक जीव,
कालान्तर में मर जाता है |
तो चहुँ ओर तम को पाकर,
तू व्यर्थ क्यों घबराता है ?
और सुख-समृद्धि से तर हो,
दंभी कैसे बन जाता है?
अपने प्रियजन को खोकर,
शोकाकुल क्यों हो जाता है?
सतत अटूट सत्य परिवर्तन,
स्थिरता सिर्फ़ छलावा है,
चिरकालीन यहाँ कुछ भी नहीं,
क्षणभंगुर प्रत्येक तमाशा है ||
मई 27, 2021
कतार
फल-सब्ज़ी और राशन की खातिर मारा-मार है,
सब व्यवसाय ठप, केवल इनमें ही व्यापार है,
प्राणों को वायु नहीं, प्राणवायु की दरकार है,
सिलेण्डर अब अलग है, पर लगती वही कतार है,
अस्पतालों पर पीड़ित रुग्णों का प्रचंड भार है,
दवा तो मिलती नहीं, दारू की भरमार है,
ज़िंदों की तो छोड़ो, मुर्दों में भी तकरार है,
श्मशानों में भी लगती, लंबी-लंबी कतार है ||
मई 23, 2021
ए माया ! तू क्या करती है ?
ए माया ! तू क्या करती है ?
सुख के लम्हों को हरती है,
पुलकित मन में गम भरती है,
माथे की लाली हरती है,
भरी कोख सूनी करती है,
पालक का साया हरती है,
जीते-जी मुर्दा करती है,
अल्पायु में प्राण हरती है,
ए माया ! तू क्या करती है ?
मई 17, 2021
बहते-बहते एकाएक वक़्त कितना बदल जाता है
सुसज्जित जिन बाजारों में,
गलियों में और चौबारों में,
बहती थी जीवन की धारा,
रहता अस्पष्ट सा एक शोर,
बसता था मानव का मेला,
क्रय-विक्रय की बेजोड़ होड़ |
वहाँ पसरा अब सन्नाटा है,
दहशत से कोई ना आता है,
अपने ही घर में हर कोई,
खुद को बंदी अब पाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
वीरान उन मैदानों में,
कब्रिस्तानों में श्मशानों में,
एकाध ही दिन में आता था,
संग अपने समूह लाता था,
विस्तृत विभिन्न रीतियों से,
माटी में वह मिल जाता था |
वहाँ मृतकों का अब तांता है,
संबंधी संग ना आता है,
अंतिम क्षणों में भी देह,
समुचित सम्मान ना पाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
शहर के उन बागानों में,
युगलों की पनाहगाहों में,
जहाँ चलते थे बल्ला और गेंद,
सजती थी यारों की महफ़िल,
खिलते थे विविधाकर्षक फ़ूल ,
जो थे सप्ताहांत की मंज़िल |
वहाँ सजती अब चिताएँ हैं,
मरघट बनी वाटिकाएँ हैं,
अस्थि के फूलों को चुनकर,
कलशों में समेटा जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
आधुनिक दवाखानों में,
खूब चलती उन दुकानों में,
रोगों के भिन्न प्रकार थे,
उतने ही अलग उपचार थे,
आशा से रोगी जाता था,
अक्सर ठीक होकर आता था |
वहाँ बस अब एक ही रोग है,
जिसका ना कोई तोड़ है,
उखड़ती साँसों से बोझिल,
स्थापित तंत्र लड़खड़ाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
कोलाहली कारखानों में,
व्यवसायिक प्रतिष्ठानों में,
दूरस्थ स्थानों के बाशिंदे,
करते थे श्रम दिन और रात,
रहता था मस्तक पर पसीना,
मन में सुखमय जीवन की आस |
वहाँ उड़ती अब धूल है,
मरना किसको कबूल है,
नगरों से वापस अपने गाँव,
पैदल ही जत्था जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
टूटी-फूटी उन सड़कों पर,
गुफा समतुल्य गड्ढों पर,
चलते थे वाहन कई प्रकार,
रहती थी दिनभर भीड़-भाड़,
इक-दूजे से आगे होने में,
होती थी अक्सर तकरार |
वो सड़कें सारी कोरी हैं,
ना वाहन है ना बटोही है,
अब अक्सर उन मार्गों पर,
रसायन छिड़का जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
विद्या के उन संस्थानों में,
शिक्षण प्रतिष्ठानों में,
जहाँ हरदम चहकते चेहरे थे,
दोस्ती के रिश्ते गहरे थे,
शिक्षा का प्रसाद मिलता था,
कलियों से फूल खिलता था |
वहाँ लटका अब ताला है,
ना कोई पढ़नेवाला है,
ज्ञान के अनुयायियों का,
दूभर-दुष्कर हर रास्ता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है |
छोटे-बड़े परिवारों में,
घरों में, त्योहारों में,
लोगों का आना-जाना था,
मिलने का सदा बहाना था,
सुख-दुःख के सब साथी थे,
हर मोड़ पर साथ निभाते थे |
अब सब घरों में बंद हैं,
ना मिलते हैं, ना संग हैं,
घर ही दफ़्तर कहलाता है,
कोई कहीं ना जाता है,
बहते-बहते एकाएक,
वक़्त कितना बदल जाता है ||
मई 09, 2021
ऐसी मेरी जननी थी
मुझको भरपेट खिलाकर,
वो खुद भूखी रह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी तकलीफ़ मिटाकर,
खुद दर्द वो सह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
अपनी ख्वाहिश दबाकर,
ज़िद मेरी पूरी करती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी मासूम भूलों को,
वो अपने सर मढ़ लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
गर कीटों से मैं डर जाऊं,
झाड़ू उनपर धर देती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी हल्के से ज्वर पर भी,
सारी रात जग लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
रुग्णावस्था में बेदम भी,
मुझको गोदी भर लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
अपने आँचल के कोने से,
मेरे सब गम हर लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी बदतमीज़ी पर वो,
भर-भर कर मुझको धोती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
गर पढ़ते-पढ़ते सुस्ताऊं,
वो दो कस के धर देती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मुझको थप्पड़ मारकर,
खुद चुपके से रो लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
बाहर के लोगों से मेरी,
गलती पर भी लड़ लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरे खोए सामान को,
वो चुटकी में ला कर देती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
आने वाले कल की ख़ातिर,
दूरी मुझसे सह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
तू जमकर बस पढ़ाई कर,
चिठ्ठी उसकी यह कहती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
छुट्टी में घर जाने पर वो,
मेरी खिदमत में रहती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी बातों के फेर में,
वो बस यूँ ही बह लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मेरी शादी से भी पहले,
कपड़े नन्हे बुन लेती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
मृत्युशय्या पर होकर भी,
मुझको हँसने को कहती थी,
ऐसी मेरी जननी थी |
उसके जाने के बाद भी,
उसकी ज़रूरत रहती है,
ऐसी मेरी जननी थी ||
मई 06, 2021
क्या पाया, तूने मानव ?
दो पैरों पर सीधा चलके,
वस्त्रों को धारण करके,
कंदराओं से निकलके,
क्या पाया, तूने मानव ?
सरिता में विष मिलाकर,
तरुवर की छाँव मिटाकर,
नगरों में खुद को बसाकर,
क्या पाया, तूने मानव ?
निर्बल पर बल चलाकर,
रुधिर को व्यर्थ बहाकर,
दौलत को खूब जुटाकर ,
क्या पाया, तूने मानव ?
परमार्थ को भुलाकर,
कुकर्मों को अपनाकर,
दमन के पथ पर जाकर,
क्या पाया, तूने मानव ?
सदस्यता लें
संदेश (Atom)