Mann Ke Bhaav offers a vast collection of Hindi Kavitayen. Read Kavita on Nature, sports, motivation, and more. Our हिंदी कविताएं, Poem, and Shayari are available online!
जुलाई 24, 2021
जुलाई 20, 2021
पिंजरे का पंछी
मैं बरखा की बूँदों सा बादलों में रहता हूँ,
पवन के झोकों में मैं मेघों की भांति बहता हूँ,
डैनों को अपने फैलाए नभ पर मैं विचरता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ |
मैं जब जी चाहे सोता हूँ जब जी चाहे उठता हूँ,
घोंसले को संयम से तिनका-तिनका संजोता हूँ,
धन की ख़ातिर ना सुन्दर लम्हों की ख़ातिर जीता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ |
पैरों में मेरे बेड़ी है पंखों पर कतरन के निशान,
जीवन में मेरे बाकी बस – बंदिश लाचारी और
अपमान,
पिंजरे में कैद बेबस मैं सपना एकल बुनता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ ||
जुलाई 17, 2021
लालबत्ती
अपनी मोटर के कोमल गद्देदार सिंहासन पर,
शीतल वायु के झोकों में अहम से विराजकर,
खिड़की के बाहर तपती-चुभती धूप में झाँककर,
मैंने एक नन्हे से बालक को अपनी ओर आते देखा |
पैरों में टूटी चप्पल थी तन पर चिथड़ों के अवशेष,
मस्तक पर असंख्य बूँदें थीं लब पर दरारों के संकेत,
उसके हाथों में एक मोटे-लंबे से बाँस पर,
मैंने सतरंगी गुब्बारों को पवन में लहराते देखा |
मेरी मोटर की खिड़की से अंदर को झाँककर,
मेरी संतति की आँखों में लोभ को भाँपकर,
आशा से मेरी खिड़की पर ऊँगली से मारकर,
उसके अधरों की दरारों को मैंने गहराते देखा |
कष्टों से दूर अपनी माता के दामन को थामकर,
अपने बाबा के हाथों से एक फुग्गे को छीनकर,
जीवन को गुड्डे-गुड़ियों का खेल भर मानकर,
अपने बच्चे के चेहरे पर खुशियों को मंडराते देखा |
चंद सिक्कों को अपनी छोटी सी झोली में बाँधकर,
खुद खेलने की उम्र में पूरे कुनबे को पालकर,
दरिद्रता के अभिशाप से बचपन को ना जानकर,
अपने बीते कल को अगली मोटर तक जाते देखा ||
जुलाई 12, 2021
सत्य क्या है?
सुख की अनुभूति,
या दुःख का अनुभव,
अंधियारी रात,
या मधुरम कलरव,
सपनों की दुनिया,
या व्याकुल वास्तव,
जीवंत शरीर,
या निर्जीव शव ||
जुलाई 04, 2021
फूल चले जाते हैं, काँटे सदा सताते हैं
छरहरी सी इक डाली पर घरौंदा अपना बसाते हैं,
कंटक के घेरे में भी, गुल खिलखिलाते हैं,
अपने रंगों की आभा से, उपवन को सजाते हैं,
मुरझाए मुखड़े पर भी, मुस्कान फ़ेर जाते हैं,
पर खुशियों के ये क्षण, दो पल को ही आते हैं,
फूल चले जाते हैं, काँटे सदा सताते हैं ||
जून 29, 2021
बचपन
वो बेफिक्री, वो मस्ती और वो नादानी,
वो शेरों की चिड़ियों-परियों की कहानी,
वो सड़कों पर कल-कल बहता बरखा का पानी,
उसमें तैराने को कागज़ की कश्ती बनानी,
वो चुपके से पैसे देती दादी-नानी,
वो आँचल की गहरी निद्रा सुहानी,
वो यारों संग धूप में साईकिल दौड़ानी,
वो बागों में मटरगश्ती और शैतानी,
वो दौर था जब खुशियों की सीमाएं थीं अनजानी,
वो दौर था जब हमने जग की सच्चाईयाँ थीं ना जानी,
ये कैसा एकांत लेकर आई है जवानी,
इससे तो बेहतर थी बचपन की नादानी ||
जून 25, 2021
बुझने से पहले ज्वाला भड़के
सूरज की अलौकिक राहों में,
अंतिम डग से थोड़ा पहले,
जब पग-पग बढ़ता राही भी,
तरु छाया में थोड़ा ठहरे,
ऊष्मा की चुभन सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
दीपक के लघुतम जीवन में,
अंधियारे से थोड़ा पहले,
जब अंतिम चंद बूँदों से,
बाती के रेशे होते सुनहरे,
ज्योति की जगमग सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
ऋतुओं के निरंतर फेरे में,
बसंती बयारों के पहले,
कोहरे के घने कंबल में,
जब दिन में भी दिनकर ना दीखे,
शिशिर की शीतलता सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
किसी मृदु-मनोहारी मंचन में,
पटाक्षेप से थोड़ा पहले,
जब उन्मुक्त निमग्न रंगकर्मी,
रहस्य की परतों को खोले,
दर्शक का रोमांच सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
गंतव्यपथ पर चलते-चलते,
शिखर छूने से थोड़ा पहले,
ध्येय को तलाशती राहों पर,
जब दृढ़-संकल्प भी डोले,
राह की जटिलता सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के |
जीवन की अनूठी यात्रा के,
समापन से थोड़ा पहले,
जब तन से रूह का बंधन भी,
झीनी सी डोरी से ही झूले,
जीने की चाह सर्वाधिक है,
बुझने से पहले ज्वाला भड़के ||
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