Mann Ke Bhaav offers a vast collection of Hindi Kavitayen. Read Kavita on Nature, sports, motivation, and more. Our हिंदी कविताएं, Poem, and Shayari are available online!
अगस्त 08, 2021
मिल्खा सिंह को सच्ची श्रद्धांजलि
अगस्त 05, 2021
हॉकी में पदक पर बधाई
बहुत दिनों बाद ऐसी सुबह आई है,
ना रंज है, ना गम है, ना रुसवाई है,
जीत की कहानी हमने दोहराई है,
कांस्य पदक पर पूरे राष्ट्र को बधाई है ||
जुलाई 29, 2021
मैरी कॉम
हार-जीत में क्या रखा जीवन के अंग हैं,
प्रेरक तेरा जीवन है, तेरे हर रंग हैं ||
ओलिंपिक पदक विजेता एम. सी. मैरी कॉम को समर्पित |
जीवनयात्रा
पथ पर पग भरते-भरते,
यात्रा संग करते-करते,
आता है औचक एक मोड़,
देता है जत्थे को तोड़,
बंट जाती हैं राहें सबकी,
बढ़ते हमराही को छोड़,
गम की गठरी को ना ले चल,
सुख के पल यादों में जोड़,
गाथा नूतन तू लिखता चल,
हर इक रस्ते हर इक मोड़ ||
जुलाई 24, 2021
सोने का तमगा आएगा
उगते सूरज की धरती पर तिरंगा लहराएगा,
राष्ट्रगान गूँजेगा, सोने का तमगा आएगा ||
जुलाई 20, 2021
पिंजरे का पंछी
मैं बरखा की बूँदों सा बादलों में रहता हूँ,
पवन के झोकों में मैं मेघों की भांति बहता हूँ,
डैनों को अपने फैलाए नभ पर मैं विचरता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ |
मैं जब जी चाहे सोता हूँ जब जी चाहे उठता हूँ,
घोंसले को संयम से तिनका-तिनका संजोता हूँ,
धन की ख़ातिर ना सुन्दर लम्हों की ख़ातिर जीता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ |
पैरों में मेरे बेड़ी है पंखों पर कतरन के निशान,
जीवन में मेरे बाकी बस – बंदिश लाचारी और
अपमान,
पिंजरे में कैद बेबस मैं सपना एकल बुनता हूँ,
मैं पिंजरे का पंछी नहीं आसमान की चिड़िया हूँ ||
जुलाई 17, 2021
लालबत्ती
अपनी मोटर के कोमल गद्देदार सिंहासन पर,
शीतल वायु के झोकों में अहम से विराजकर,
खिड़की के बाहर तपती-चुभती धूप में झाँककर,
मैंने एक नन्हे से बालक को अपनी ओर आते देखा |
पैरों में टूटी चप्पल थी तन पर चिथड़ों के अवशेष,
मस्तक पर असंख्य बूँदें थीं लब पर दरारों के संकेत,
उसके हाथों में एक मोटे-लंबे से बाँस पर,
मैंने सतरंगी गुब्बारों को पवन में लहराते देखा |
मेरी मोटर की खिड़की से अंदर को झाँककर,
मेरी संतति की आँखों में लोभ को भाँपकर,
आशा से मेरी खिड़की पर ऊँगली से मारकर,
उसके अधरों की दरारों को मैंने गहराते देखा |
कष्टों से दूर अपनी माता के दामन को थामकर,
अपने बाबा के हाथों से एक फुग्गे को छीनकर,
जीवन को गुड्डे-गुड़ियों का खेल भर मानकर,
अपने बच्चे के चेहरे पर खुशियों को मंडराते देखा |
चंद सिक्कों को अपनी छोटी सी झोली में बाँधकर,
खुद खेलने की उम्र में पूरे कुनबे को पालकर,
दरिद्रता के अभिशाप से बचपन को ना जानकर,
अपने बीते कल को अगली मोटर तक जाते देखा ||
सदस्यता लें
संदेश (Atom)